दिलीप चित्रे और राजेंद्र किशोर पंडा के लिए
एक
शरीर के भीतर कुछ होता है
एक लंबी आधी अँधेरी सड़क है
अनजानी दहशत की,
अचानक किसी झटके से तो नहीं रुकेगी साँस?
धीरे-धीरे, पुरानी भावुक नशीली फ़िल्मों की तरह
हिचकियों और बातचीत के बीच
किसी बूढ़े की सुंदर चिकनी मौत
या लपटों में जलती, कई कुलाटियाँ खाती
कोई कार
या कोई महँगी बीमारी
और चीख़ते-थरथराते अंतिम दिन
देखने को बहुत सारा वक़्त है इन दिनों
इन दिनों,
जबकि, भीतर, कुछ न कुछ होता है
किसी ने लोहे का फाटक हल्के से खोला
कोई आवाज़ आई
बाल्टी में पानी भरने
या बर्तन खनखनाने की
पिछवाड़े के अमरूद की पत्तियों की सरसर
या कोई भी काल्पनिक आवाज़
तो जिस अँधेरे में धुकधुक करती है छाती
वहाँ कितना मोह है अभी भी
कितनी तृष्णा,
बुदबुदाहट सी खामख़याली के चारों तरफ़
अहंकार की अमरबेल लिपटी है
लेकिन औरत अपनी थकान के बावजूद
बाल्टी भर भरके
सींचती है क्यारियाँ
क्यारियों के पीछे, या कहीं भी
किसी अदृश्य सुनसान में
एक दूसरी औरत है
जैसे यह वही हो
डर और मोह के बीच, कोई जगह
जहाँ रात की चाँदनी में
झरते हैं टगर के फूल,
दो
दुबली नदी के किनारे
रेत के अनगिनत घरौंदों के बीच
निर्वसन उत्तुंग छातियों में
अपने को विलीन करता हुआ
मेरा अकेला स्वप्न खड़ा हो
दहशत या उम्मीद से परे
अपनी इच्छा में सनसनाता
एक कठिन क्रूर सीधा वृक्ष
हालाँकि यह भी एक पड़ाव है
बेमानीपन के बंजर में
अपने को हरा देखने की चाह भी
शरीर के भीतर उगती है,
तो ऐसे
जैसे किसी बच्चे ने
बारूद का साँप बाण जलाया हो
ख़ुशी से किलका हो
फिर किसी अजनबी धमाके से सहमकर
चुपचाप सो गया हो
सोने में ही सुख है वाली कहावत से
टलता नहीं है भय
हल्के-हल्के काँपता है शरीर
आँख देखती है दृश्य
कान सुनते हैं,
दुपहर या रात की आवाज़
या लंबी गप्पबाज़ी की चादर ओढ़कर
सुस्ताता है
चभलाता है अपनी हड्डियाँ
मेरा अकेलापन
रात के सीने पर, सिर टिका याद करता है;
घर-द्वार, माँ-बाप, औरत-बच्चे
सरकार तथा समाज के बारे में
बहस करता हुआ, सो जाता है चुपचाप
अपने बच्चे की तरह
नींद के भीतर भी असल में शरीर है
असल में शरीर के भीतर ही है सारा कुछ
यानी वो नन्ही पहाड़ी
आधी रात, जिसकी तलहटी में
एक किशोरी की कामना से खेलते हुए
तीन
मैंने सोचा था मौत
या वो झील
जहाँ शराब की बोतल थी
और पूरे होश में थरथराती औरत
शिकारे पर बेसुध सौंप रही थी
अपनी उम्र का आख़िरी फूल
और मैंने सोचा था मौत
घमासान रक्तपात, भीषण हिंसा
दुर्दांत कोई वज्रपात,
कोई आश्चर्यकारी दुर्योग
छिपा है कहीं शरीर में
आह!
भाषा की सारी हदों को तोड़कर
कोई गाता है बेसुध
एक पथरीला गीत,
माथे पर, सीने पर, आँखों और गालों पर
बरसते हैं पत्थर
पत्थर की रात, पत्थर के दिन
पत्थर के समय में भी
कितना ओछा है शरीर
कि खट् के खटके से
बढ़ता है हाथ तिपाई पर रखी शीशी तक
आँख झाँकती है बाहर
डर
उड़ता है, पल भर एक अदृश्य लहर में
हिल रहा है सामने के बँगले का ताड़ वृक्ष
खिड़की से झाँकती है लड़की
उलझती है आँख,
एक नए खेल में
पर भीतर
अभी भी है डर
अभी भी है मौत की हविस
एक काले समय की प्रतीक्षा में
हर बार
शरीर की तमाम समझदार हरकतों में
मद-मोह-लोभ और ईर्ष्या से भरी
चार
इस आदिम स्रोतस्विनी में
काई और कीचड़, जल और सिवार
नदी है अभी भी,
शहर के राजमहल की जर्जर दीवारों को
बारिश के दिनों में सहलाती
नदी में
राजसी इच्छाओं का वेग है
तामसी स्वप्नों का संगीत
और बेशुमार भयों के तोहफ़े
शरीर के चारों तरफ़
उगती है कँटीली झाड़ियाँ
उगते हैं, बेमहक़ बेशुमार फूल
झरते हैं, सिहरते हैं अंग
साबित शरीर की हिफ़ाज़त में
तनती है अकेली बंदूक़
जिससे न आत्महत्या की जा सकती है
न हत्या
हर बार
बजती है, लोहे के गेट की साँकल
बर्तन खनखनाते हैं
बिस्तर पर पड़ा-पड़ा
बुदबुदाता हूँ हर बार
हे राम! हे राम! हे राम!