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आज़ादी

azadi

उद्भ्रांत

उद्भ्रांत

आज़ादी

उद्भ्रांत

और अधिकउद्भ्रांत

    कल एक मित्र के बेटे की

    बर्थ डे पार्टी से लौटने में

    हो गई आधी रात।

    मित्र हमउम्र;

    ज़ाहिर है बेटा उसका था जवान—

    शरीर से भी,

    दिल से भी।

    उसकी बर्थ डे पार्टी

    उसी की उम्र के

    उसके दोस्तों की पार्टी थी।

    दोस्तों में ज़ाहिर है लड़कियाँ भी होंगी

    जो करेंगी डांस पश्चिमी धुनों पर।

    पार्टी में केक तो कटेगा,

    लेकिन उसके बाद

    आयातित शराबों की कॉकटेल,

    नॉनवेज डिनर भी।

    मित्र थे पुजारी परंपरा के,

    रिटायर हुए पिछले महीने ही।

    सत्ता उनके हाथों से खिसक कर

    पहुँच गई थी

    बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने वाले

    बेटे और बहू के पास

    शनैः-शनैः।

    इस गहमागहमी में

    अकेलेपन से बचने हेतु

    आग्रह कर उन्होंने

    रोक लिया था मुझे।

    पर उतनी देर तक वह

    दूर हो सका नहीं

    उनका साथ देते

    और देखते हुए उनकी आँखों में

    मेरी आँखों ने भी

    महसू किया अकेलापन।

    निकला उनके घर से जब

    स्कॉच के दो लार्ज

    उतारकर कंठ के भीतर—

    देर हो चुकी थी;

    अर्द्धरात्रि का समय

    रहा निकटतर था।

    घर के नज़दीक़ पहुँचने से पूर्व

    नोएडा के अट्टा चौराहे पर

    मैंने दृश्य देखा एक अनोखा।

    साठ बरस की एक युवती

    जीर्ण-जर्जर धोती लपेटे हुए

    किसी किशोरी जैसी

    महीन आवाज़ में

    मुक्तकंठ से

    जन, गण, मन को गुनगुनाते हुए

    नाच रही थी जैसे पागल हो।

    शायद निकाली गई

    अपने ही घर से

    अपनों के द्वारा वह वृद्धा

    आधी रात का गजर

    बजने के साथ ही

    युवती की आत्मा को

    धारण कर

    किशोरोचित हर्ष और

    उल्लास और उमंग से

    गाने लगी थी वह

    आज़ादी का कोई

    उत्साहवर्द्धक, प्रेरणाप्रद तराना।

    मैंने महसू किया

    स्वयं को क़ैदख़ाने में,

    पाँवों में बेड़ियाँ पड़ी हुईं,

    हिल भी नहीं सकता था मैं अब।

    रात्रि थी भयानक और

    सुबह अभी दूर थी।

    मस्तिष्क ने

    पूछा मुझसे—

    अब तुम क्या करोगे?

    चुल्लू भर खोजोगे पानी या

    आँखें फोड़ लोगे—

    शर्म की नुकीली बरछी से!

    स्रोत :
    • पुस्तक : जल (पृष्ठ 78)
    • रचनाकार : उद्भ्रांत
    • प्रकाशन : यश पब्लिकेशंस
    • संस्करण : 2019

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