हरियाली से झरी हुइ है घाटी की गहराई,
जिसमें खग कूजन की धारा फिरती है लहराइ।
शिलाखंड में मूति बनाती, धार वारि छेनी से,
मग में रुक कुछ कह लेती है, भाली मृगनयनी से।
गिरती पड़ती चक्कर खाती, नाच भँवर में, गाती,
सुगन रा श अचल में भरती, मदमाती, इटलाती।
कानन भी छबि, सलिल सूत्र में, चुन चुन, विहँस पिरोती,
परिरम्भन कर चुंबन देती न्योछावर हँस होती।
गूँथ गूँथ, सरि ने शृंगों के बनमाला पहनाई,
मुर बधुएँ देखा करती हैं यह शोभा ललवाई।
लिपटे हैं आकाश अङ्क में शृंग श्रेणियों के शिशुगण,
मचल मचल, उन्नत पये घरों में, लुक-छिप, कर ताप शमन,
संध्या से, रवि कंदुक क्रीडा में, जो छीन छिपाते हैं,
चमक चमक कर, रँग में मर मर, अद्भुत रूप दिखाते हैं।
- पुस्तक : कवि भारती (पृष्ठ 176)
- रचनाकार : गुरुभक्तसिंह
- प्रकाशन : साहित्य प्रेस
- संस्करण : 1953
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