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शहतूत हैं हरे-भरे

shahtut hain hare bhare

प्रभजोत कौर

प्रभजोत कौर

शहतूत हैं हरे-भरे

प्रभजोत कौर

और अधिकप्रभजोत कौर

    यह शहतूत हरा हरियाला

    जिसके फल होते विकसित

    नए युग की नियति पर ही

    काल-चक्र चलता है।

    हे हरियाले शहतूत

    तेरे पत्तों की ठंडी छाया

    शिकारियों ने जाल बिछाए

    चुग्गा चुगे कैसे?

    हरियाले प्यारे शहतूत

    तुम्हारे पत्र हरे-भरे हैं

    भूखी जान को वश किया

    तो प्रेम कौन निभाएगा?

    हरियाले शहतूत हे

    तुम्हारा रंग गहरा हरा

    जीवन कहाँ जा बसा

    जड़ है यहाँ धरा।

    हे शहतूत के ताज़ा पेड़

    फल यहाँ सुहाने लगते

    जो अनचाही मौत पाते

    उनकी जगह मैं जाऊँ क्या?

    हे हरियाले शहतूत

    धरती पर आक उगता है

    गगन से तारे टूटते

    और स्वप्न नयनों से दूर।

    हे लचकीले शहतूत

    बुद्धि क्यों पतित हुई है

    क्यों मिठास ग़ायब हुई

    और लुप्त पड़ा संगीत।

    हरे-भरे शहतूत

    तुम्हारे फल भी मीठे हैं

    साथ यार सब और कामगार

    और शत्रु का लंबा चिट्ठा।

    हरियाले शहतूत तुम

    नित्य हरे लगाओ बाग़

    पत्र पुराने झड़ गए

    और नए की लो सौग़ात।

    हे हरियाले शहतूत

    ये जगे कहाँ से राग

    पछवा में दुविधा बड़ी

    पूर्व खिला हा बाग़।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 100)
    • रचनाकार : प्रभजोत कौर के साथ अनुवादक फूलचंद मानव और योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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