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शहर से गुज़रते हुए

shahr se guzarte hue

स्वाति मेलकानी

स्वाति मेलकानी

शहर से गुज़रते हुए

स्वाति मेलकानी

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    ताज़ी बर्फ़ के फाहों-सा

    मेरा सर्द शहर

    अपने बाशिंदों के लिबास पर

    चिपका हुआ चलता है...

    शहर किसी भी वक़्त

    ख़ुद को छिटक कर

    अलग हो जाता है

    और अपने लिबास पर पड़े

    गीले निशानों से

    हमें अपने छूट जाने की

    ख़बर मिलती है...

    लंबे साथ की मोहलत

    शहर कभी नहीं देता...

    हर रोज़ घर से निकलकर

    हम खो जाते हैं शहर में

    और इंसानी मरुस्थल के बीच

    दिन भर अपनी शिनाख़्त करके

    लौट आते हैं

    ख़ाली हाथ और भारी दिमाग़ के साथ...

    रंगीन ख़ुशबुओं से महकते शहर में

    अब भी गाँव की गंध आती है

    पर उसे सूँघने की कोशिश

    महज़ वक़्त की बर्बादी है...

    शहर ढकना चाहता है

    अपना पुरानापन

    और रोज़ रात में

    दिन भर के कचरे को

    बुहार कर सोता है...

    हर सुबह

    एक नई अंगड़ाई लेकर

    और नया होने की ख़्वाहिश लिए

    जग जाता है मेरा शहर...

    शहर ख़्वाबों के जीने

    और उनके मर जाने का चश्मदीद है

    शहर से गुज़रते हुए

    मैंने देखी हैं कुछ आँखें

    जो ठहरी हैं सदियों से

    उसी शहर में

    जो बेतहाशा भाग रहा है

    शहर से गुज़रते हुए

    बहुत कुछ गुज़र जाता है

    पर जो रह जाता है

    शायद वही बचा रहेगा

    जब शहर

    एक पल ठहर कर

    ख़ुद से रूठ जाने की

    तरक़ीब सोचेगा...

    स्रोत :
    • रचनाकार : स्वाति मेलकानी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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