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शहर में

shahr mein

दफ़ैरून

दफ़ैरून

शहर में

दफ़ैरून

और अधिकदफ़ैरून

    मैंने उससे पूछा—तुम कहाँ रहते हो?

    उसने कहा—...शहर में रहता हूँ

    मैंने पूछा—तुम्हारा शहर कैसा है?

    उसने कहा—ऐसा—

    और मुझे एक अलबम थमा दिया उसने

    मैंने अलबम देखना शुरू किया—

    पहला चित्र

    एक लड़का बुढ़िया को हाथ पकड़कर सड़क पार करा रहा था

    दूसरा चित्र—

    एक कार चरमरा कर रुक गई थी और बिल्ली ने

    सड़क पार कर ली थी

    तीसरा चित्र—

    एक ज़हरीले साँप ने किसी को काटूँ-काटूँ सोचकर

    मन बदल लिया था

    चौथा चित्र—

    एक दंपति बिल्कुल प्रेमियों की भाँति व्यवहार

    कर रहे थे

    पाँचवाँ चित्र—

    एक अधेड़ को कुछ बच्चे घेरकर बैठे थे शायद कि वे

    कहानी सुन रहे थे और वह उनकी दादी या नानी थी

    छठवाँ चित्र—

    एक घर में कुछ लोग मुस्कुराते हुए छत पर खड़े थे और

    मुस्कुराता चाँद देख रहे थे।

    और भी चित्र थे अलबम में लगभग ऐसे ही

    अलबम देख कर मैंने

    उसके हाथों में थमा दिया

    उसने पूछा—कैसा है मेरा शहर?

    मैंने कहा—तो तुम...कस्बे में रहते हो?

    उसने कहा—इतनी बड़ी आबादी वाली और

    विकसित बस्ती को तुम कस्बा कह रहे हो, आश्चर्य।

    मैंने कहा—इसमें आश्चर्य की क्या बात है,

    ये कोई शहर है, ऐसा कोई शहर होता है भला

    आबादी के बढ़ जाने और शहरों की तर्ज़ पर घर बना लेने से

    कोई कस्बा शहर हुआ है कभी?

    मैं रुका, वह मुझे और भी आश्चर्य से देख रहा था

    मैंने कहना शुरू किया—

    शहर में तो बुढ़िया सड़क पार कर ही नहीं पाती

    शहर में तो बिल्ली कार से कुचल ही जाती है

    शहर में तो साँप छोड़ता ही नहीं मन बनाकर,

    बल्कि बे-मन से ही झपट कर काट लेता है

    शहर में तो दंपति, दंपति ही होते हैं प्रेमी नहीं

    शहर में तो दादी या नानी होती ही नहीं हैं बिल्कुल ही

    शहर में तो चाँद दिखता है और ही किसी को

    देखने की फ़ुर्सत ही होती है उसे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पेड़ अकेला नहीं कटता (पृष्ठ 47)
    • रचनाकार : दफ़ैरून
    • प्रकाशन : रामकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2001

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