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शहर की हवा

shahr ki hava

शाम्भवी तिवारी

शाम्भवी तिवारी

शहर की हवा

शाम्भवी तिवारी

और अधिकशाम्भवी तिवारी

    सोचो—कैसा रहा होगा वह पहला आदमी

    जिसे शहर की हवा लग गई होगी

    जिसे अंधा कर दिया होगा शहर की चकाचौंध ने

    इतना कि शहर और संसार में फ़र्क़ कर पाना

    उसके लिए मुश्किल हो गया होगा

    कोफ़्त होने लगी होगी उसे

    परिंदों की चहचहाहट से,

    बादलों की गड़गड़ाहट से,

    सूखते पत्तों में हवा की सरसराहट से,

    अपने अलावा किसी भी और आहट से

    नाक चढ़ाकर भौंहें सिकोड़ लेता होगा वह

    किसी गँवई बुज़ुर्ग की सिकोड़ी धोती के मानिंद

    किसी गँवई बुज़ुर्ग की सिकुड़ी धोती देखकर

    और मुँह फेर लेता होगा

    नई दुल्हनों के सीनों से सिए सिमटते घूँघटों में से

    गमकते गजरे की खिलखिलाहट पर

    हथेलियों में छुपा लेता होगा अपनी नाक

    गोबर के उपलों में मुँह छुपाती

    दीवारों से आँखें मिलाकर

    शहर की हवा लगा आदमी

    ऊपर उठ गया होगा जड़ और ज़मीन से

    सो धूल उड़ा देता होगा वह

    गाँवों की ओर लौटती पगडंडियों के बूढ़े चेहरों पर

    और गाँवों से बिछड़ती सड़कों पर कोलतार बिछाते

    उन्हीं से जोड़ लेता होगा—

    आकाश, सावन, बादल के सभी सपने

    जिनमें पिघलकर मिल जाता होगा

    उसकी आँखों का सारा श्यामल

    उम्मीदों की आग में झोंक देने के बाद

    जिसके धुएँ का एक क़तरा ही

    वास्तव में आकाश, सावन, बादल तक पहुँच पाता होगा

    त्रिशंकु के मानिंद नीचे फेंके जाने से पहले

    शहर की हवा लगा आदमी

    गाँव के मच्छरों, मक्खियों, कुत्तों, बिल्लियों से भी

    ऊपर उठ चुका होगा

    इसीलिए अब उसे केवल जकड़ सकती हैं

    दूसरे शहरों से आने वाली महामारियाँ

    और सरकारी विकास की क़वायदें

    जो शायद उसके रिक्शे के पिछले परदे पर

    लटकी किसी अभिनेत्री के पोस्टर के मानिंद

    शहर का तोहफ़ा और

    शहरी अस्तित्व की सजावट मात्र हैं

    शहर की हवा लगा आदमी

    हवा तक को तुच्छ समझता होगा

    क्योंकि वह चाहता है कि उसके बच्चे

    ऑक्सीजन के नाम से जानें उसे

    वरना वह फड़फड़ाती तितलियों के मानिंद

    हवा में से उसे छाँटकर

    साँस लेना नहीं सीख पाएँगे

    और इसी हवा से ख़ुद को भी बचाने को वह

    ईंटें, सीमेंट, लोहा, लक्कड़

    सबके लबादे ओढ़ लेता है

    उसी विश्वास के मानिंद

    जो तालाब की भोली मछलियों का

    बगुला भगत के भगवे पर था।

    शहर की हवा लगा आदमी

    आदमी होने से भी ऊपर उठ गया होगा

    और शहर की ऊँचाई तक भी

    पहुँच पाया होगा

    बिल्कुल यादों के मानिंद जिनमें

    गाँव अपना हो सकता है

    घर, परिवार, पहचान अपने हो सकते हैं,

    पर वर्तमान के मानिंद

    शहर कभी किसी का नहीं होता

    इसीलिए मत सोचो कि कैसा रहा होगा

    शहर की हवा लगा पहला आदमी

    जो जैसे-तैसे शहर बन ही गया होगा

    और शहर की ही मानिंद

    जो किसी का

    कैसे भी

    नहीं होता।

    मत सोचो उस आदमी के बारे में

    जिसे अंधा कर दिया होगा

    शहर की चकाचौंध ने

    क्योंकि फिर तुम भी उसी के मानिंद

    शहर से परे

    कुछ भी देख, सुन या सोच नहीं पाओगे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : शाम्भवी तिवारी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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