शहर का ख़त
shahr ka khat
आज एक चिट्ठी मुझे मिली
ये चिट्ठी तुम्हारे शहर ने लिखी है
शहर वैसे कभी किसी का नहीं होता
तुम वहाँ रहती थी
इसलिए मैंने शहर को
तुम्हारा कहना शुरू कर दिया
शहर लिखता है
मेरे जाने के बाद उसके पास
उन गलियों ने उलाहनें भेंजे
जहाँ-जहाँ से मैं अनमना होकर गुज़रा था
शहर की धूल से रश्क करती है
शहर की सख़्त ज़मीं
उसे लगता है धूल ने
कम से कम चूम तो लिया था मेरा माथा
मेरे जूतों के निशान
सड़को ने रख लिए है अपने घर
ताकि वो शिनाख़्त करने के काम आ सके कभी
शिकायत तो उस चौराहे ने भी की है
जिसका एक रस्ता तुम्हारे घर की तरफ़ जाता था
मगर मैं उधर जाने की बात तो दूर देखने की भी
हिम्मत न कर सका
शहर कहता है मुझसे
सुनो! जब जब तुम आए मुझे लगा
इस मतलबी दुनिया में
आज भी ज़िंदा है विश्वास
बचा हुआ है बहुत कुछ
विकल्पों और षड्यंत्रों से इतर
मेरी आमद का कोई अर्थ
विकसित नहीं कर पाया शहर
इस बात पर भी वो ख़ुश था
वरना रोज़ भीड़ में देखता है वो
अपने-अपने अजनबी
और बेहद औपचारिक क़िस्म के मेल-मिलाप
इस चिट्ठी में तुम्हारा शहर
पेश आता है
एक दोस्त की तरह
जबकि मेरी कोई दुआ सलाम नहीं हुई थी उससे
उसकी स्मृतियों में
मेरी गंध बस गई है
वो सूँघता है अपना तकिया बिस्तर और कपड़े
ये बात उसी ने मुझे चिट्ठी के ज़रिए बताई
तुम्हारा शहर मुझे देखता है अपलक
थोड़े विस्मय से
हँसता है मेरे पागलपन पर अकेले में
इस बात का भी ज़िक्र मिलता है
चिट्ठी में
अंत में वो चाहता है
मेरी कुशल-क्षेम
और पूछता है एक ही सवाल
आग्रह और जिज्ञासा के साथ
फिर कब आओगे?
- रचनाकार : डॉ. अजित
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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