बनारस के गंगा घाट पर वुज़ू कर
मंदिर के बाहर शहनाई बजाने वाला
किंवदंती बन चुका बुज़ुर्ग कहता है—
बेटा, अभी तलाश रहा हूँ ऐसा सुर
जिसको सुन
दुश्मन की तरफ़ मुँह किए तोप का गोला
पिघल जाए बीच नाल में ही
और बाहर निकले बु्द्ध की शक्ल लेकर
सागर की छाती को चीरता पोत
मोती बन समा जाए सीप के गर्भ में
और वह सीप मिले किसी प्रेमी को
हवा में गर्जना करता ज़ंगी जहाज़
बदल जाए झाग के बुलबुले में
और फूटे
बच्चे की पेंसिल की नोक और कॉपी के बीच आकर
हल्की दाढ़ी लिए अस्त होता सूरज
मेरे को पास बैठा बोलता है—
बेटा इस उम्र में भी
एक ही दुख सालता है मुझे
अभी तक नहीं ढूँढ़ पाया हूँ वह सुर
जिसको शहनाई पर बजाऊँ
तो सीमाएँ बेचैन हो उठें
और कर लें आलिंगन एक दूसरे का
दुश्मन की आँखों को घूरती लाल आँखें
बंदूक़ छोड़ लौट जाएँ वापस
और घर पहुँच देखें
बेटी की आँखों में कैसे नाचता है वसंत
नफ़रत का पहाड़ा याद करने वाला
यह जान जाए कि सबसे आसान होता है
प्रेम का गणित
और इसमें दो दूनी पाँच रटने वाला भी
आता है परीक्षा में प्रथम
बात को थोड़ा आगे बढ़ाते
उस्ताद जी कहते हैं—
वह चाहे जीवन हो या संगीत
सुर में रहना बहुत ज़रूरी है
बेसुरा होना
शहनाई का सबसे बड़ा दुख है।
- रचनाकार : कुमार कृष्ण शर्मा
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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