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शबनम

shabnam

अनुवाद : पृथ्वीनाथ मधुप

बशीर भद्रवाही

और अधिकबशीर भद्रवाही

    प्रेमियों ने रात भर की साधना

    चाँद चलते आसमाँ पर थक गया

    भर गए तारक गगन पर ज्यों उसाँस

    रोशनी से पुर हुआ-सा आसमान

    गया ज्यों याद तम को

    रोशनी से पुर हुआ-सा आसमान

    लो प्रभावित हो गई—

    बुलबुलों की है गुहार

    छितरा दिए—

    मोती किसी ने आज फिर

    फूल कहता—

    अश्रुकण मैंने बहाए

    पारितोषक मुझे ही चाहिए

    यह मेरा ही भेद

    कहलाता गुलसिताँ

    ऋतुराज उठ बैठा कुपित-सा

    और हँसने लगा

    श्रम मेरा हर माथ पर श्रमकण सजा

    मैंने ही मोती सजाए—

    पाँखुरी पर देख लो

    कौन है जो सूक्ष्मता को और मति को देखता

    मुझ-सा दिल होता किसी का—

    इस जहाँ में देख लो

    होती मुझ जैसी—

    किन्हीं सीनों की आँख

    दाद देते वे बहुत सुकुमार भेदों की स्वयं

    कह रहा साक़ी कि मैंने ही—

    फूलों को पिलाई है शराब

    गई जाने कहाँ से झूमती-सी ख़ुशबुएँ

    प्रात का वातास उनके गले मिलते-सा रहा

    धर दिए मरहम के फाहे—

    मैंने गुलेलाला के दाह पर

    आश-सी जागी दिलों में नर्सिसों को फिर वही

    पंछियों के बोल फिर—

    आर्द्र थे होने लगे

    एक अर्से बाद—

    शीतलता थी लगी छाने यहाँ

    सूर्य ने सोचा

    भला मैं ही पीछे क्यों रहूँ

    निकल आया वह कि जैसे

    पर्वतों को चूमता

    और धीरे-से विश्व के

    गिर्द घूमने लग गया

    तपती धूप का चपेटा भी ले के आया—

    हड़बड़ी में वह यहाँ

    ओस घबराई और छूटी कँपकँपी

    बादलों बिन वज्र गिरता—

    प्रेमियों को दिख गया

    नज़्में-ग़ज़लें फिर से—

    शायर लिखने लगे

    प्राण शबनम के निकले

    जैसे कभी जन्मी थी

    जल वह खुद होके बेचारी

    प्यासी-की-प्यासी रह गई

    सिंधु ने इक सीप में—

    एक क़तरे को गहा

    सुर्य़ ने ढूँढ़ा बहुत

    पर मिल पाई सफलता

    बूँद निकली अंत में—

    बन एक मोती चमकता

    तूफ़ाँ समंदर के कि ख़ुद

    इसके रक्षक बन गए

    है यही संकल्प

    इसको ही कहते ज़िंदगी।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 129)
    • संपादक : रतनलाल शांत
    • रचनाकार : बशीर भद्रवाही
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2005

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