शब्दों को ढूँढ़ती हूँ अँधरे में
shabdon ko DhunDhati hoon andhare mein
मेरा शरीर मेरी इच्छाओं पर
प्रतिबंध लगाता रहता है
उनसे झगड़ता-बहसता
पूरे चाँद को देख मूड बदल जाता है
लहरों की तरह भीतर बवंडर मचाता रहता है
ज़हर में शायद कोई मीठी दहशत है
जिससे डरती फिर-फिर वही
बहस की गोली चखती रहती हूँ
उसी के स्वाद को बनाने के लिए
शब्दों को ढूँढ़ती हूँ अँधेरे में
- पुस्तक : सन्नाटे के इर्द-गिर्द (पृष्ठ 118)
- रचनाकार : चंपा वैद
- प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस
- संस्करण : 1997
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