शब्दों को अर्थ देने के लिए ज़रूरी है कि उन्हें तहख़ाने के
भीतर से
खींचा जाए :
और
उतरी हुई खाल से बना दिया जाए ढोल या
बेसुरा राग : हमेशा दरिंदों की तरह घूमते हैं
अर्थ
और किसी भी चमड़ी का जायज़ा लेने के लिए उतर जाते हैं
तलहटियों में।
शब्दों के अर्थ और अर्थों के शब्द और शताब्दी की चपटी
मज्जा पर हुए घाव : संलाप : ठंडे संवाद
तीखे, चटपटे, कड़वे, खट्टे, भौंडे स्वाद...
अब कोई देश नंगा नहीं होगा : कोई चमड़ी
काली, सफ़ेद, हरी और प्याज़ी नहीं होगी
भुनभुनाहट : टर्नाता हुआ बरसाती आश्वासन।
कंधों पर हाथ हवा को देखकर गिरते हैं : और प्रत्येक पंछी गाने के लिए
मौसम का इंतज़ार करता है : अब
मैंने अपने नाम पर, हथेलियों पर, कंधों पर, चिपटे तालू पर,
ख़ूँख़ार गलियों में घूमते शोहदों पर, देश के लिए क्रांति को
चूसते बहियों में धँसे क्रांतिकारियों पर, झंडे के नीचे
जमा भीड़ पर, जनतंत्र का तंत्र गाने वाले तांत्रिकों पर,
बेसुरा टर्गते मेंढकी समाज-रक्षकों पर, तमाम, तमाम
तमाम संज्ञाओं, विशेषणों, क्रियाओं के घपने में डूबे
घोंघों पर
शब्दों के कवच छोड़ने बंद कर दिए हैं।
कुछ दिनों बाद प्रत्येक निठल्ला शब्द एक खोल बन जाता है
जिसमें छिप जाता है कोई भी भेड़िया, लकड़बग्घा और
कबूतर :
माँद तक जाते पेजों के निशान परिभाषाएँ बनाते हैं और
नक़्शे का ढंग बदलते हैं; वह नक़्शा बदन का हो,
चेहरे का हो, हथेली का हो या देश का, इतिहास का,
संस्कृति का, समाज का, व्यभिचार का, दुराचार का,
गंदी गली के मुहाने का या किसी नंगी कोढ़ी
शताब्दी का—
इससे शब्दों को अंतर नहीं पड़ता और पीली नदी, भूरी आधी
के साथ उछलती है और सबको ढेर कर देती है। मैंने
शब्दों, अर्थों, आकारों को पहचानना बंद कर दिया है। मैंने
मुड़े हुए टख़नों की शिराओं के भीतर घूमते रक्त को छूना
चाहा है। मुझे नहीं देना है शताब्दी की खोखल में धँसे निठल्ले, भद्दे
शब्दों को अर्थ, मुझे नहीं सीखनी है
नपुंसक शब्दों की भाषा; मुझे नहीं जीना है
प्रलापों के मध्य : मैंने
जान लिया है उस प्रचंड ज्वाला का रहस्य; जहाँ कुछ नहीं
रहता शेष और कविता पिघल कर स्पर्शों और
गंधों मे बहने लगती है।
अपने कंधों पर उभरते हुए उँगलियों के निशानों
को पिओ : गिनना शुरू करो
एक, दो, तीन, चार, पाँच
अनादि काल तक चलता जाएगा
क्रम और पेट के बल रेंगता हुआ ज़हरीला नाग डसता
रहेगा; शब्दों के माध्यम से : मैंने
अपने बचाव और मोक्ष और मुक्ति और
निर्माण का बेहद पुरज़ोर नुस्ख़ा बना लिया है, जिसे
कभी गोबर की पुड़िया बना कर, कभी
भस्म, कभी जलती हुई रेत, कभी ठंडी सर्द हवा, कभी
झुलसती हुई आग, कभी चिलकता रिसता पीला घाव, कभभ
हथेलियों में झुकी बरौनियाँ, कभी फूलों में खिलता वसंत,
कभी सूखी हड्डियो का चूरा कर
मैं तमाम-तमाम कसैले नामर्दों, खोखली घसियारी औरतों और
चिनचिनाते बच्चों में बाँट दूँगी।
यह शब्दों का औघड़ मंत्र है जो
शताब्दियों को अनेक तपस्याओं और
जाति, क़स्बे, गाँव, शहर को अनेक
पुनर्जन्मों, बाढ़ों, अकालों और महामारियों के पश्चात्
मिलता है।
मंत्र, मंत्र है : पकता हुआ अलाव नहीं
कि फूट निकलेगा मुर्ग़ी का बच्चा या गुमशुदा लड़का
न कोई अल्पना है कि
चबूतरे रंगीन हो जाएँगे और ठुनठुनाती हुई गोल झील
मुट्ठियों में धँस जाएगी : यह मंत्र
शब्दों का है : सीधा-सीधा तना हुआ।
समझने के लिए सीधा होना आवयक है; टेढ़ी उँगली
उठाने से कुछ नहीं होता :
औघड़ मंत्र शब्दों का फूटता है
क्रांति में, शांति में, विभ्रांति में। मैंने
ग़ुस्से के लिए शब्द-माँद बना ली है जो
दहाड़ती है
हँसने के लिए शब्द-फूल चुन लिए हैं
चिढ़ने को अकेला तहख़ाना बना दिया है और उसमें
चमगादड़ों को बंद कर दिया है।
सोचने को...
सुरंग बना दी है जो दम घुटे वातावरण से बाहर जाकर खुलती है
हीरे-जवाहरात नहीं मिलते, लपकी हुई आती है रौशनी और
फेफड़ों में हवा भर जाती है। अब
कमज़ोर हो गए हैं शब्द; इनमें किसी
तिलिस्मी गुफा का मुँह तोड़ने की क्षमता नहीं है।
तुम्हारी आवाज़ को बरसाती मेंढक बना कर बेसुरा
टर्राने के लिए छोड़ दिया है बूढ़े अँधेरे तालाब में।
याद को धूल कर दिया है जो हवा के साथ आँखों में
गिरती है;
याद का तिनका बना दिया जिसे चुन-चुनकर पक्षी
घोंसले बनाते हैं, अंडे सेने के लिए।
याद को बाँट दिया है गैंडे का चमड़ा; कोई प्रहार भीतर
तक असर नहीं करता।
कछुआ और गड्डा दोनों संज्ञाएँ मैंने स्मृति को
सौंप दी हैं जो कभी सिमट कर
कोने में दुबकती हैं और कभी बीचोबीच रास्ते में
धकेल देती है, मुँह के बल;
प्यार को मैंने आकाश सौंप दिया है; चौबीसों
घंटे सिर चढ़ा रहता है।
आत्मीयता हल्के हाथों से किवाड़ थपथपाती है और सहम
गुज़र जाती है चुपचाप : प्यास
ठंडे पानी के गिलास में डूब जाती है : भूख
रेत में सब्ज़ बाग़ बनाती है और राशन की दुकान के
किवाड़ों को झकझोरती हुई सड़क पर
बेशर्म हो जाती है।
मेरे पास ढेर सारे खोल हैं शब्दों के
जिन्हें मैं सौंप देना चाहती हूँ
अंधी आँखों वाली क़ौम को; जिसे चाहिए रौशनी
वह कुछ शब्द-संज्ञाओं को
ओढ़ ले : जिसे चाहिए
रक्त
वह शब्द-क्रियाओं को निचोड़ ले, जिसे
चाहिए कोढ़, मात्र वहशी उद्दाम, उच्छृंखल आवेग
वह शब्दों को चाबुक की तरह फटकारे और
नंगा हो जाए।
जिसे चाहिए प्यास,
वह सूखे कुएँ में शब्दों के ढेले फेंके। जिसे
चाहिए आवाज़ वह सहला दे
शब्दों को। मुझे
नहीं चाहिए शब्दों के खोल,
ढोल, शंख, घड़िया, नूपुर, लास्य, तांडव, अजंता-मुद्राएँ
औघड़ भंगिमाएँ, भैरवी राग, मल्हार, विशेषण
क्रियाएँ : अवायवीय होकर बहते हुए
अदृश्य सकेतों में बँधे नियति-प्रलाप।
मैंने अपने बचाव को गढ़ लिया है औघड़ मंत्र और
चेतना के तमाम बिंदुओं को
शब्द-गुह्वा में फेंक
मुस्कुराने लगी हूँ। आओ तुम
मेरे साथ बैठकर आकाश देखो
उड़ते हुए कबूतरों के पंख गिनो
स्पर्श, गंध, जीवंत बहाव पिओ।
- पुस्तक : सोच को दृष्टि दो (पृष्ठ 54)
- रचनाकार : मोना गुलाटी
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