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प्रेम कविता : 1966

prem kawita ha 1966

जगदीश चतुर्वेदी

जगदीश चतुर्वेदी

प्रेम कविता : 1966

जगदीश चतुर्वेदी

और अधिकजगदीश चतुर्वेदी

    तुमको हवा की तरह महसूस करता हुआ

    शरीर एक तंद्रा में

    जागता है सारी रात!

    तुम्हारी चुप्पी के गिर्द बहती रहती है

    वासना की अजस्त्र गंध

    और पहचानी आवाज़ों को (जो तुम नहीं बोलती कभी)

    मैं संघों में से खींचकर दरवाज़े बंद कर लेता हूँ।

    छोटे-छोटे स्तनों के पास से झरती

    पसीने की गंध मेरे लिए

    अपने वस्त्रों की तरह पहचानी लगती है

    माथे पर बिखरी लटों का एक गुंजक

    मैं चूमकर भर लेना चाहता हूँ

    अधरों की दरार में!

    एक अनिश्चित घड़ी को प्रतीक्षा में मैंने सहन किए हैं पत्नी

    और बच्चों के चुप्पी भरे चेहरों के बदलते हुए तेवर

    मैंने किसी अकल्पित व्यथा के नीचे सड़ते अपने मांस-तंतुओं को

    हृदय के नीचे लटकते पाया है

    टूटन को छुरी से कटता मेरा सिर

    तुम्हारी जाँघों में सो जाना चाहता है

    एक गाढ़ी नींद!

    बहकते हुए झरनों-सी तुम्हारी चंचल और बिजली भरी

    आँखें मेरे रेशे की उमस में फेंकती हैं कोई चमकीला अस्त्र

    चुभन के नीचे पिघलते हाथों को मैं तुम्हें सौंपना चाहता हूँ

    इस घुटन के नीचे दबते अपने वक्ष को

    मैं तुम्हारी सपाट छातियों की सीजन से

    तिक्त करना चाहता हूँ!

    एक अवधि के लिए अपनी पहचानी पुस्तक के पृष्ठों में केवल

    एक नाम लिखना चाहता हूँ;

    वह नाम तुम्हारा है—

    मौन व्यथा में रिसती धूप-सी लड़की वह तुम्हारा है नाम

    व्यथा में गुमसुम खड़ा-सा नाम

    केवल दो अक्षरों का!

    स्रोत :
    • पुस्तक : विजप (पृष्ठ 89)
    • रचनाकार : जगदीश चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 1967

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