हर किसी का इतना तो योग है मुझमें
har kisi ka itna to yog hai mujhmen
यह जो देह है
जो कि अब तक आबाद है
कितना मेरी है
शत-प्रतिशत का कौन-सा हिस्सा स्वीकार करूँ
बहुत मुश्किल होगी तय करने में
एक प्रतिशत भी बच पाऊँगा
इसमें संदेह है
जिसने मुझे जन्मा
वह अपना हिस्सा माँगेगा
जिसने चिकुटी काटकर चेतना बख़्शी
उसे भी तो कुछ देना ही पड़ेगा
क़तरन से बनाए गए जिस सुग्गे ने मन मोहा
उस सुग्गे के निर्माता का भी हिस्सा रखना होगा
उन मिट्टी और लकड़ियों के खिलौने
कम सच्चे थोड़े थे उन दिनों
कुछ उनके मालिकों को भी देना चाहिए
उस हर गोद, हर दुलार, हर चुंबन का हिस्सा भी तय करूँ
जिसने अपने जिगर के टुकड़े-सा प्यार बरसाया
मुझे सलामत रखने के लिए
जहाँ-जहाँ, जिसके-जिसके पास दौड़ी थी
मुझे लेकर मेरी दादी
जिसके बाद मैं हमेशा ही कुछ हरा हो उठा था
कुछ तो हो उन गुमनाम फ़रिश्तों का भी हिस्सा
उस बग़ीचे के हर उस पेड़ का हिस्सा तय हो
जिसने अपनी ऊँची डाली पर बैठाकर
पहली बार यह बताया
कि ऊँचाई पर होना बहुत अच्छी बात नहीं
गिरने का डर बराबर बना रहता है
जिसने बताया कि चढ़ने से कहीं मुश्किल है उतरना
चढ़ो तो याद रखो कि लौटना होगा ज़मीन की ओर
और साथ ही उस बग़ीचे के मालिक ख़ान साहब का भी हिस्सा अलग करूँ
जिसने पके फलों पर चलते ढेलों को देखकर भी
कभी गालियाँ नहीं दीं
नहीं तोड़े किसी के हाथ-पैर
उन पक्षियों के लिए भी कुछ तय करूँ
जिनका नकलची रहा मैं
आवाज़ और उड़ान दोनों में
जिसने मुझे इंसान बनाए रखने में
सबसे ज़्यादा योग दिया
उस उस्ताद के लिए कितना हिस्सा तय करूँ
यह मुश्किल भी सामने है
मैं जिस गाँव में पला-बढ़ा
वह जितना हिंदुओं का है, उतना ही मुसलमानों का भी
मैंने सालों रहमतुल्ला ख़ाँ के सीले कपड़ों से
अपने बदन को ढका
अमजद अली की मिल से
पैसा न होते हुए भी
पिसा लाया गेहूँ
कुटा लाया धान
बग़ैर उनका हिस्सा तय किए
मैं अपने होने की गवाही कैसे दे सकता हूँ
जब किसी बीमारी या ज़रूरत पर
जब भी किसी संपन्न द्वार पर गए दादा
किसी ने सूद लेकर तो किसी ने
बग़ैर सूद के भी उस बुरे वक़्त में साथ दिया
जब मैंने दाख़िला लिया
देश के बड़े विश्वविद्यालय में
कई लोगों ने मदद के हाथ बढ़ाए
किसी ने उतना ही लिया, जितना दिया था
किसी ने कभी लिया ही नहीं
यह कहते हुए कि तुमने गाँव-जवार का नाम किया है
इन सबों के हिस्से भी तय करूँ और देखूँ
कुछ बचा भी है या नहीं
जिन्होंने मुझे ज्ञान दिया
जिन्होंने बताया कि घृणा क्या होती है
जिन्होंने किसी भी तरह से मेरा नाम लिया
मुझे गिराया तब भी
उठाया तब भी
मेरा विस्तार ही किया
मुझे भीरु बनाने के बजाय साहसी बनाया
उनके लिए भी कुछ तय करना होगा
यह जो देह है
इसे बनाने में
सात राज्यों की मिट्टी और संसाधन का योग है
योग है कई-कई भाषाओं का
हज़ार-हज़ार लोगों का
लाख-लाख वनस्पतियों का
करोड़ों-करोड़ दानों का
अनगिन श्रमशील भुजाओं का
मैं कहाँ से लाऊँगा ऐसी देह
जिसमें सबके लिए कुछ न कुछ हो
दे सकूँ सबको कुछ न कुछ
आज जो भी मैं लौटा पा रहा हूँ
वह भी लौटाना कहाँ है
उसमें भी पाना ही है
जिन्हें, मैं पढ़ाता हूँ
या कहूँ कि जिनके साथ पढ़ता हूँ
जो मेरे साथ जीते हैं,
जिनके साथ मैं जीता हूँ
जितना देता हूँ, उससे बढ़कर पाता हूँ
वे सब बचा लेते हैं मुझे भोथरा होने से
उन सबकी बदौलत मेरी चमक है
मैं बहुत कम जानता हूँ
उनके घरबार के बारे में
उनके सुख के बारे में
जाति और रंग से नहीं
मैं उन्हें उनके दुःख और परेशानियों से जानता हूँ
और आगे भी जानना चाहूँगा
ताकि तय कर सकूँ इनका भी हिस्सा
श्रम करते हुए इसी जनम में!
- रचनाकार : लक्ष्मण गुप्त
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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