तर्क के साथ जीने वाले
इक्कीसवीं सदी के बच्चे को
एक तस्वीर दिखाई जाती है
यह कहकर
देखो, ये शहंशाह बहादुरशाह ज़फ़र हैं
बच्चा संदेह भरी आँखों से
एक बार तस्वीर को देखता है और एक बार हमें
उसका यह संदेह देर तक परेशान करने वाला होता है
बच्चा यक़ीनन अच्छे से जानता है
एक राजा की तस्वीर में कुछ और नहीं तो
सिर पर मुकुट और राजसिंहासन का सहारा तो होगा ही
उसी बच्चे को लाल क़िले के संग्रहालय में प्रदर्शित बहादुरशाह का चोग़ा दिखाते
हुए...
कुछ कहते-कहते हम ख़ुद ही रुक जाते हैं
उसकी आँखों के संदेह से दुबारा गुज़रने से हमें डर लगता है
जब हम दरियागंज जाने के लिए बहादुरशाह ज़फ़र मार्ग से गुज़रने लगते हैं
तब वह बच्चा अचानक से कह उठता है
बहादुरशाह ज़फ़र, वही तस्वीर वाले बूढ़े शहंशाह
सच को यक़ीन में बदलने का काम एक सड़क करेगी
ऐसे उदाहरण बिरले ही होंगे
पहली बार उस दिन सरकार की पीठ थपथपाने का मन किया
आगे चलकर जब यही बच्चा डार्विन का सूत्र
'सरवाइवल ऑफ़ द फ़िटेस्ट' पढ़ेगा
तब ख़ुद ही जान जाएगा कैसे बीमार इंसान और कमज़ोर घोड़े को
रेस से बाहर खदेड़ दिया जाता है
कैसे इतिहास का पलड़ा
एक ख़ास वर्ग की तरफ़ ही झुकने का आदी है
तब तक वह बच्चा भी संसार की कई दूसरी चीज़ों के साथ
सामंजस्य बिठाने की उम्र में आ चुका होगा
किसी आधे दिमाग़ की सोच भी यह सहज ही समझ लेती है
एक राजा की याद को एक-दो फ़्रेम में क़ैद कर देने का षड्यंत्र
कोई छोटा नहीं होता
जबकि एक शाइर राजा को याद करते हुए
आने वाली पीढ़ियों की आँखों के सामने से
कई चित्र अनायास गुज़र जाने चाहिए थे
जिसमें बहादुरशाह ज़फ़र मोती मस्जिद के पास की चिमनी पर कुछ सोचते दिखाई देते,
छज्जे की सीढ़ी से उतरते या प्रवेश द्वार से गुज़रते,
मदहोश गुंबद के पास खड़े हो दूर क्षितिज में ताकते,
बालकनी के झरोखों से झाँकते ज़फ़र
या कभी वे ज़ीनत महल के क़िले की छत पर पतंग उड़ाते नज़र आते
कभी सोचते, लिखते और फिर घुमावदार पलों में खो जाते
जब समय तंग हाथों में चला जाता है
स्वस्थ चीज़ों पर ज़ंग लगनी शुरू हो जाती है
और जब रंगून की कोठरी में बीमार
लाल चोग़े में लालबाई का बेटा और एक धीरोदात्त फ़क़ीर
अपना दर्द काग़ज़ के पन्नों पर उतारता है
तो फ़रिश्ते के पितर भी मनाने लगते हैं शोक
इतिहास को
अपने अंजाम तक पहुँचाने वाले नहीं जानते होंगे
कल की कमान उनके किसी कारिंदे के हाथों मे नहीं होगी
ज़ीनत महल में आज लोहारों के हथौड़े बिना थके आवाज़ करते हैं
लेती हैं फूलवालों की सैर पर हज़ारों ज़िंदगियाँ लंबी साँस
नाहरवाली हवेली को पाकिस्तान से आकर बसे हुए
हिंदू परिवारों का शोर करता है आबाद
चाँदनी चौक का एक बाशिंदा गर्व से कहता है :
''हमारे पूर्वज
ज़फ़र साहब को दीपावली के अवसर पर
पूजन सामग्री पहुँचाकर धन्य हुए थे''
राग पहाड़ी में मेहँदी हसन जब गा उठते हैं—
“बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी”
संवेदना की सबसे महीन नस हरकत करने लगती है तब
ठीक उसी वक़्त ज़िल्ल-ए-सुब्हानी
अपने लंबे चोग़े में बिना किसी आवाज़ के
हमारे क़रीब से गुज़र जाते हैं
देते हुए हज़ारों शुभकामनाएँ
एक दरवेश की तरह।
- रचनाकार : विपिन चौधरी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनि
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