समुद्र, मैं और तुम
samudr, main aur tum
एक
समुद्र की शांति
भंग होती है हवाओं से
मेरी शांति भंग होती है
जब आती है
तुम्हारी याद
दो
अभी कल ही
समुद्र की लहरों में
चमकती तुम्हारी आँखों ने
भींच लिया
जैसे भींच लेती हो
बाँहों में
तीन
समुद्र की लहरें
पीछे अलविदा कह रही थीं
और सामने पेड़ों पर
बिखरी हुई थी
तुम्हारी मुस्कान
तभी तो पहाड़ों पर
नंगी सूखी चट्टानें नहीं
हरी पत्तियाँ थीं
चार
समुद्र की लहरें
होंठों को उतनी ही
नमकीन लग रही थीं
जितने नमकीन होते हैं
तुम्हारे ढुलकते आँसू
पाँच
समुद्र का मन
भर जाता है
जब मिलती हैं
नदियाँ
नदियों की मिट जाती है
प्यास
जब समा जाती हैं समुद्र में
छह
नदियाँ पूर्ण होती हैं
समाकर समुद्र में
मैं होता हूँ पूर्ण
डूबकर तुम्हारे
प्यार में
सात
समुद्र में प्रवेश किया
सीपियों और मोतियों की खोज में
और याद आए फ़राज़ :
'ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिले...'
मगर वहाँ तैर रही थी
तुम्हारी इठलाहट
और मेरी मुट्ठियाँ भर गईं
आज मुझसे ज़्यादा ख़ुश हुआ समुद्र
उसकी उछलती लहरों ने
साहिलों से ज़्यादा प्यार किया
सूरज के लिए आज ज़्यादा समय था
उसके पास
बादलों को कई बार आमंत्रित किया
नदियों से बिहँसकर लिपटा
और पर्वतों को बाँहों में भर लिया
आठ
आज शाम समुद्र की लहरों पर
निश्चिंत होकर लेटा था सूरज
जैसे विश्रांति के पल में
लेटा रहता हूँ मैं
तुम्हारी गोद में
नौ
समुद्र से उठता मानसून
छा जाता है चहुँओर
पहाड़ों, घाटियों और झीलों से इस कदर
जुड़ जाता है रिश्ता
जिसे भुला पाना नामुमकिन है
अपरिचित मुस्कान जो छा गई मेरे ऊपर
वह, तुम्हारा और समुद्र का
कोई संयुक्त अभियान लगता है।
दस
आज मेरे आँगन में
चुपके से प्रवेश किया समुद्र
उसके ज्वार और भाटा के साथ
अमावस और पूर्णिमा के बीच
उछलते सूरज और चाँद
तुम्हारी आँखों में उतर आए
ग्यारह
समुद्र पुकारता है
बिहँसकर मिलते एक युगल को देख
आ जाओ प्रिये
कहाँ हो तुम अभी
पहाड़ों पर।
बारह
अनंत विस्तारित समुद्र में
असंख्य वनस्पतियाँ
सृष्टि की प्रथम सोपान हैं
जहाँ आज भी गूँज रही है
प्रथम लय
तुम्हारे विशाल हृदय में
अपनी छोटी सी उपस्थिति
चाहता हूँ।
तेरह
मैंने जो कुछ चाहा
तुमसे पाया
अगाध धैर्य, अपार दृष्टि
चाह की अनंत अभिलाषा
अनचाहे अपनाया
दुख-सुख, पल-प्रतिपल
उत्सव का गान
मणि-मदिरा, शंख-शशि
विष-अमृत चतुर्दश रत्नों का
गुरु धन्वंतरि, उच्चैःश्रवा
चंद्र, रंभा, ऐरावत गज
कामधेनु, कल्पवृक्ष, मुस्कान
सरिता का पूर्ण निःश्वास समाया।
हे प्रिये तुमसे ही मैंने
रत्नाकर को
रत्नाकर से ही तुमको
जान सका।
चौदह
समुद्र का हृदय कितना विशाल
जहाँ असंख्य वनस्पतियाँ हैं
मैं तुम्हारे विशाल हृदय में
अपनी छोटी-सी उपस्थिति
चाहता हूँ।
- पुस्तक : उम्मीद अब भी बाक़ी है (पृष्ठ 53)
- रचनाकार : रविशंकर उपाध्याय
- प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
- संस्करण : 2015
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.