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समुद्र, मैं और तुम

samudr, main aur tum

रविशंकर उपाध्याय

रविशंकर उपाध्याय

समुद्र, मैं और तुम

रविशंकर उपाध्याय

और अधिकरविशंकर उपाध्याय

     

    एक

    समुद्र की शांति
    भंग होती है हवाओं से
    मेरी शांति भंग होती है
    जब आती है
    तुम्हारी याद

    दो

    अभी कल ही
    समुद्र की लहरों में
    चमकती तुम्हारी आँखों ने
    भींच लिया
    जैसे भींच लेती हो
    बाँहों में

    तीन

    समुद्र की लहरें
    पीछे अलविदा कह रही थीं
    और सामने पेड़ों पर
    बिखरी हुई थी
    तुम्हारी मुस्कान

    तभी तो पहाड़ों पर

    नंगी सूखी चट्टानें नहीं
    हरी पत्तियाँ थीं

    चार

    समुद्र की लहरें
    होंठों को उतनी ही
    नमकीन लग रही थीं
    जितने नमकीन होते हैं
    तुम्हारे ढुलकते आँसू

    पाँच

    समुद्र का मन
    भर जाता है
    जब मिलती हैं
    नदियाँ

    नदियों की मिट जाती है
    प्यास
    जब समा जाती हैं समुद्र में

    छह

    नदियाँ पूर्ण होती हैं
    समाकर समुद्र में

    मैं होता हूँ पूर्ण
    डूबकर तुम्हारे
    प्यार में

    सात

    समुद्र में प्रवेश किया
    सीपियों और मोतियों की खोज में
    और याद आए फ़राज़ :
    'ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिले...'
    मगर वहाँ तैर रही थी
    तुम्हारी इठलाहट
    और मेरी मुट्ठियाँ भर गईं

    आज मुझसे ज़्यादा ख़ुश हुआ समुद्र
    उसकी उछलती लहरों ने
    साहिलों से ज़्यादा प्यार किया

    सूरज के लिए आज ज़्यादा समय था
    उसके पास
    बादलों को कई बार आमंत्रित किया
    नदियों से बिहँसकर लिपटा
    और पर्वतों को बाँहों में भर लिया

    आठ

    आज शाम समुद्र की लहरों पर
    निश्चिंत होकर लेटा था सूरज

    जैसे विश्रांति के पल में
    लेटा रहता हूँ मैं
    तुम्हारी गोद में

    नौ

    समुद्र से उठता मानसून
    छा जाता है चहुँओर
    पहाड़ों, घाटियों और झीलों से इस कदर
    जुड़ जाता है रिश्ता
    जिसे भुला पाना नामुमकिन है

    अपरिचित मुस्कान जो छा गई मेरे ऊपर
    वह, तुम्हारा और समुद्र का
    कोई संयुक्त अभियान लगता है।

    दस

    आज मेरे आँगन में
    चुपके से प्रवेश किया समुद्र

    उसके ज्वार और भाटा के साथ
    अमावस और पूर्णिमा के बीच
    उछलते सूरज और चाँद
    तुम्हारी आँखों में उतर आए

    ग्यारह

    समुद्र पुकारता है
    बिहँसकर मिलते एक युगल को देख
    आ जाओ प्रिये
    कहाँ हो तुम अभी
    पहाड़ों पर।

    बारह

    अनंत विस्तारित समुद्र में
    असंख्य वनस्पतियाँ
    सृष्टि की प्रथम सोपान हैं
    जहाँ आज भी गूँज रही है
    प्रथम लय

    तुम्हारे विशाल हृदय में
    अपनी छोटी सी उपस्थिति
    चाहता हूँ।

    तेरह

    मैंने जो कुछ चाहा
    तुमसे पाया
    अगाध धैर्य, अपार दृष्टि
    चाह की अनंत अभिलाषा
    अनचाहे अपनाया

    दुख-सुख, पल-प्रतिपल
    उत्सव का गान
    मणि-मदिरा, शंख-शशि
    विष-अमृत चतुर्दश रत्नों का
    गुरु धन्वंतरि, उच्चैःश्रवा
    चंद्र, रंभा, ऐरावत गज
    कामधेनु, कल्पवृक्ष, मुस्कान
    सरिता का पूर्ण निःश्वास समाया।

    हे प्रिये तुमसे ही मैंने
    रत्नाकर को
    रत्नाकर से ही तुमको
    जान सका।

    चौदह

    समुद्र का हृदय कितना विशाल
    जहाँ असंख्य वनस्पतियाँ हैं

    मैं तुम्हारे विशाल हृदय में
    अपनी छोटी-सी उपस्थिति
    चाहता हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उम्मीद अब भी बाक़ी है (पृष्ठ 53)
    • रचनाकार : रविशंकर उपाध्याय
    • प्रकाशन : राधाकृष्ण प्रकाशन
    • संस्करण : 2015

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