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सरबत सखी जमावड़ा : सरबत सखी निज़ाम

sarbat sakhi jamawDa ha sarbat sakhi nizam

संजय चतुर्वेदी

संजय चतुर्वेदी

सरबत सखी जमावड़ा : सरबत सखी निज़ाम

संजय चतुर्वेदी

और अधिकसंजय चतुर्वेदी

    कविता में तिकड़म घुसी जीवन कहाँ समाय

    सखियाँ बैठीं परमपद सतगुरु दिया भगाय

    घन घमंड के झाग में लंपट भये हसीन

    खुसुर पुसुर करते रहे बिद्या बुद्धि प्रबीन

    सतगुरु ढूँढ़े ना मिलै सखियाँ मिलें हज़ार

    किटी पार्टी हो गया कविता का संसार

    रूपवाद जनवाद की एक भई पहचान

    सखी सखी से मिल गई हुआ खेल आसान

    ऊँची कविता आधुनिक पकड़ सकै ना कोय

    औरन बेमतलब करै ख़ुद बेमतलब होय

    कवियन के लेहड़े चले लिए हाथ में म्यान

    इत फेंकी तलवार उत मिलन लगे सम्मान

    लाली मेरी चाल की जित देखौ तित आग

    जिसने कपड़ा रँग लिया सो धन-धन ताके भाग

    कविता आखर खात है ताकी टेढ़ी चाल

    जे नर कविता खाय गए तिनको कौन हवाल

    जनता दई निकाल सो अब मनमर्जी होय

    मंद मंद मुस्काय कवि कविता दीन्ही रोय

    खसुर पुसुर खड़यंत्र में फैले सकल जुगाड़

    निकल रही यश वासना तासें बंद किबाड़

    सरबत सखी जमावड़ा गजब गुनगुनी धूप

    कल्चर का होता भया सरबत सखी सरूप

    सरबत सखियन देख कै लंपट रहे दहाड़

    करै हरामी भाँगड़ा सतगुरु खाय पछाड़

    कनक सरवरी चढ़ गई सदासिंधु जलजान

    गद्य पद्य सुख मद्य है मत चूकै चौहान

    सर्किट ने सर्किट गह्यौ सो सर्किट बोल्यौ आय

    जो सर्किट बोल्यौ चहै तौ सर्किट निकस्यौ जाय

    कौन वतन साहित्य का कौन गली का रोग

    कौन देस से आत हैं सर्किट बाले लोग

    चिंतक बैठे घात में लिए सुपारी हाथ

    जो सर्किट पूरा करै सो चलै हमारे साथ

    छंद भए बैरी परम दंद-फंद अनुराग

    सतगुरु खटकै आँख में ऐसा चढ़ा सुहाग

    सखी पंथ निर्गुन सगुन दुर्गुन कहा जाय

    सखियन देखन मैं चली मैं भी गई सखियाय

    कल्चर की खुजली बढ़ी जग में फैली खाज

    जिया खुजावन चाहता सतगुरु रखियो लाज

    कवियों ने धोखे किए कविता में क्या खोट

    कवि असत्य के साथ है ले विचार की ओट

    स्रोत :
    • रचनाकार : संजय चतुर्वेदी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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