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सांत्वना

santwna

मैथिलीशरण गुप्त

और अधिकमैथिलीशरण गुप्त

    कैसी विधि है विधे, हाय! यह कहो तुम्हारी,

    ऐसी सुंकर सृष्टि और क्षणभंगुर सारी।

    इंद्रजाल का शाल खड़ा निर्मूल किया है,

    सोने का संसार बना कर धूल किया है।

    बस पत्तों पर ही दृष्टि थी,

    सुध बुध रही मूल की।

    चतुरानन, हो कर भी चतुर,

    तुमने यह क्या भूल की॥

    है विकास सर्वत्र नाश का सूचक हम मैं,

    होकर पूर्ण सुधांशु तूर्ण मिलता है तम में।

    किंतु चंद्र तो हाय! दृष्टि में फिर आता है;

    हममें से तो गया सदा को ही जाता है।

    फिर भी अपना कुछ बस नहीं,

    यह विधि का व्यापार है।

    हे हृदय, धैर्य, शांत हो,

    मिथ्या सोच विचार है॥

    रोग, शोक, संताप सहन करने ही होंगे,

    भव के भीषण भार वहन करने ही होंगे।

    जैसे बीते समय बिता देना ही होगा;

    जो कुछ देगा दैव हमें लेना ही होगा।

    जब जन्म हुआ है मृत्यु भी,

    होगी निश्चय ही कभी।

    होते हैं इस संसार के,

    कार्य नियति के वश सभी॥

    है जिसकी यह देह उसी के मर्म हमारे,

    कर्म उसी के और उसी के फल हैं सारे।

    होंगे फिर सुख दु:ख हमारे भला कहाँ से,

    गत होंगे सब वहीं, समागत हुए जहाँ से।

    हे देव, जना दो बस यही,

    यदि हम इतना जानते।

    तो भ्रांत भाव से व्यर्थ ही,

    हर्ष शोक क्यों मानते॥

    हैं हम तो आदेश पालने वाले प्रभु के,

    जड़ शरीर में जीव डालने वाले प्रभु के।

    जीना है, वह कहै, कहै मरना है हमको,

    इंगित के अनुसार कार्य करना है हमको।

    जो कुछ उसको अच्छा करो,

    वह कर्ता करता रहे।

    स्वीकार हमें है दु:ख-सुख,

    जो चाहे भरता रहे॥

    कण कण में है कांति उसी हृदयस्थ कांत की,

    किंतु मोह ने हाय! हमारी दृष्टि भ्रांत की।

    हम सांसारिक जीव रहीं यह तत्व समझते,

    तो अशांति के जटिल जाल में कभी उलझते।

    पर अब उपाय है और क्या,

    उसका ही आधार है।

    वह करुणा वरुण आलय विदित,

    विभुवर विश्वाधार है॥

    हे अचिंत्य, अखिलेश, विश्व-ब्रह्मांड-बिहारी,

    शिरोधार्य है नाथ, हमें सब शास्ति तुम्हारी।

    देव! तुम्हारा दान सदा समुचित ही होगा,

    अहित होगा कभी, हमारा हित ही होगा।

    है केवल इतनी प्रार्थना,

    हमें आत्मबल दीजिए।

    इस दुर्गम जीवन-मार्ग में,

    कभी कभी सुध लीजिए॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : मंगल-घट (पृष्ठ 248)
    • संपादक : मैथिलीशरण गुप्त
    • रचनाकार : मैथिलीशरण गुप्त
    • प्रकाशन : साहित्य-सदन, चिरगाँव (झाँसी)
    • संस्करण : 1994

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