जब घंटा-घंटा मर रही है रात
और गहरी हो रही है मालिकों की नींद
तुम्हारे बूटों की आवाज़ ऊँघती धरती की नींद में ख़लल डाल रही है
तुम्हारी सीटी सन्नाटे की नीरवता नापती है
तुम्हारी संगीन चढ़ी बंदूक़
अँधेरे में आसन्न ख़तरे के लिए लोड है
प्रकृति के शांत क्रिया-व्यापार तुम्हें चौंका देते हैं
अब जबकि ख़तरा अँधेरे में एकाकार है
और तुम्हारी हरेक हरकत पर वह रखे है नज़र
ऐसे में, क्यों पालते हो ख़ुद की और दूसरों की सुरक्षा का भ्रम
दिन में वही ख़तरा झक्क पोशाक में दिखता है
वर्दी उतरवा देने की धमकी देता हुआ
वही ख़तरा तुमसे माँगता है बेटी का दहेज़
वही ख़तरा लिखवाता है चिट्ठियाँ क्रूर प्रताड़नाओं की
बीमार औरत के लिए बंद करता है भव्य-अस्पतालों के द्वार
तुम्हारे बूट उस संधि-रेखा पर देते हैं पहरा
जहाँ तुम्हें दोस्त और दुश्मनों में फ़र्क़ करना है
तुम्हारे पहरे से बेख़बर एक चिड़िया
सो रही है घोंसले में
एक तारा जाग रहा है, उसकी पहरेदारी में
मामूली-सी आहट पर चौकन्ने तुम्हारे कान
और अंधकार भेदकर ख़तरा टोह लेती तुम्हारी आँखें
जान नहीं पातीं, आस-पास का ख़तरा
भरभरा कर गिरती दीवारों की आवाज़
तुम सुन नहीं पाते
नंगी आँखों से, सब कुछ साफ़-साफ़ देखकर उसी को बजाते हो सलाम
पहरे के वक़्त तुम्हारी ही चिंताएँ जागती रहती हैं
तुम्हारी निगहबानी में
तुम्हारी ही छाया खड़ी है, तुम्हारे प्रतिकार में
नींद का यह वक़्त
धड़कती नब्ज़ और पलकों पर भारी है
पहरे से लौटते तुम्हारे भारी बूट
सने हैं ओस में
ताला-ज़ंजीर के साथ में रायफ़लें सोने चली गई हैं कोत में
सो जाओ कि कमज़ोर वैसे भी मारे जावेंगे
पहरे के वाबजूद
सो जाओ कि बेटी की चिट्ठियाँ, अब पीछा नहीं करेंगी नींद में
कि अब बीमार औरत
रात के गजर से नहीं गिनेगी अपनी उम्र
सो जाओ ख़ुद से ही बड़बड़ाते सो जाओ उस नींद की स्मृति में
जो बन चुकी है सिर्फ़ जागरण
सो जाओ कि तुम्हारा भोला-ईमान
दुश्मनों को रहेगा याद
सो जाओ कि तुम्हारे न रहने पर भी
लोगों में बना रहेगा, विश्वास पहरे का।
- पुस्तक : एक अनाम कवि की कविताएँ (पृष्ठ 140)
- संपादक : दूधनाथ सिंह
- रचनाकार : अनाम कवि
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2016
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