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प्रारब्ध

prarabdh

अनुवाद : एम. जी. वेंकटकृष्णन

तिरुवल्लुवर

तिरुवल्लुवर

प्रारब्ध

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    371

    अर्थ-वृद्धि के भाग्य से, हो आलस्य-अभाव।

    अर्थ-नाश के भाग्य से, हो आलस्य स्वभाव॥

    372

    अर्थ-क्षयकर भाग्य तो, करे बुद्धि को मन्द।

    अर्थ-वृद्धिकर भाग्य तो, करे विशाल अमन्द॥

    373

    गूढ़ शास्त्र सीखें बहुत, फिर भी अपना भाग्य।

    मन्द बुद्धि का हो अगर, हावी मांद्य अभाग्य॥

    374

    जगत-प्रकृति है नियतिवश, दो प्रकार से भिन्न।

    श्रीयुत होना एक है, ज्ञान-प्राप्ति है भिन्न॥

    375

    धन अर्जन करत समय, विधिवश यह हो जाय।

    बुरा बनेगा सब भला, बुरा भला बन जाय॥

    376

    कठिन यत्न भी ना रखे, जो रहा निज भाग।

    निकाले नहीं निकलता, जो है अपने भाग॥

    377

    भाग्य-विद्यायक के किए, बिना भाग्य का योग।

    कोटि चयन के बाद भी, दुर्लभ है सुख-भोग॥

    378

    दुःख बदे जो हैं उन्हें, यदि दिलावें दैव।

    सुख से वंचित दीन सब, बनें विरक्त तदैव॥

    379

    रमता है सुख-भोग में, फल दे जब सत्कर्म।

    गड़बड़ करना किसलिए, फल दे जब दुष्कर्म॥

    380

    बढ़ कर भी प्रारब्ध से, क्या है शक्ति महान।

    जयी वही उसपर अगर, चाल चलावे आन॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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