एक वस्तु जब किसी को अपना हृदय देती है
तो जीवन भर के लिए दे देती है
वह अपना शरीर भी उसको करती है समर्पित
और इतनी अंतरंग हो जाती है
कि सिर्फ़ उसी को देखकर
पहचान लिया जा सकता है आदमी को
पटरियों के किनारे या अनजान सड़कों पर
कितनी ही शिनाख़्त वस्तुओं से हुईं
वस्तुओं ने लोगों को लावारिस नहीं रहने दिया
कई बार वे कहानियों के सिंहासन की तरह
या वरदान में मिली पोशाक की तरह पेश आती हैं
उन पर कोई दूसरा नहीं बैठ सकता
उन्हें कोई दूसरा नहीं पहिन सकता
वे किसी को भी करुण मज़ाक़ में बदल देगी
(कभी-कभी पत्नी गुज़र गई माँ की साड़ी पहिनती है)
वस्तुएँ भी जीवितों से पाती हैं अपना जीवन
वह झोला नीला-मटमैला
बार-बार वापरने से वह
एक आदमी के शरीर का हिस्सा हो गया था
उस आदमी के साथ वह भी मर गया
और पड़ा है उधर पुराने कपड़ों के साथ निस्पंद
मैं जिस शाम भी काँसे के कटोरे में दलिया खाता हूँ
उसे अपने आँसुओं से भरा पाता हूँ
घूमता-फिरता हूँ संग्रहालय में चश्मा देखता हूँ
छड़ी, छाता और कुर्सी देखता हूँ
बेसाख़्ता याद आता है
कि घर में भी पीछे छूट गई वस्तुओं का
संग्रह होता चला जा रहा है।
- रचनाकार : कुमार अम्बुज
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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