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समय की कुटिल हँसी

samay ki kutil hansi

अनुवाद : राजेन्द्र प्रसाद मिश्र

सरोज रंजन महांति

सरोज रंजन महांति

समय की कुटिल हँसी

सरोज रंजन महांति

और अधिकसरोज रंजन महांति

    शायद वे नहीं जानते कि काल की

    एक कुटिल हँसी से उलट

    सकता है सिंहासन,

    धूल में मिल सकता है मुकुट

    सोने के तारों से बनी पोशाक और

    विद्रोह कर लकती है

    भूखी प्रजा।

    शायद उन्होंने मान लिया है कि समय

    दरबार के सिंहासन पर उनके

    विराजमान होने के समय का

    चँवर है, जो डोलता होगा

    परिचारिकाओं के सुंदर हाथों में।

    समय किसी का ग़ुलाम नहीं, उसकी

    एक फूँक से

    उनका साम्राज्य उड़ सकता है,

    लिखा जा सकता है नया इतिहास

    और वे ख़ुद भी

    बन सकते है इतिहास का जीवाश्म

    और उसके बदले खड़ा हो सकता है

    वायदों से, संभावनाओं से उज्ज्वल

    मुस्कुराहट भरा नया भविष्य

    अंगीकार से अभिषिक्त

    तरुणावस्था का मलय पवन।

    समय का स्वर

    ख़ुशामद करने के अभ्यस्त अनेक आज्ञाकारी पार्षदों का

    ख़ुद-ब-ख़ुद सक्रिय जीभ का उच्चाटन

    और भाट-भाषण नहीं है।

    समय की धारा

    चिरस्रोता नदी की उच्छल धारा की तरह

    वाङ्मय है;

    वह उनके दरबार की दीवार पर

    झूलती बहती नदी की

    बनाई गई तस्वीर नहीं है।

    समय सामंतवाद की

    छत्र-छाया में पनाह

    लिए हुए शासन-तंत्र के

    चिकने फ़र्श पर

    लंगर डाले अवसरवाद का

    जहाज़ भी नहीं है अथवा उसका कप्तान भी नहीं कि

    वह सलाम करता होगा और दाँत निपोरे

    खड़ा होगाआदेश को प्रतीक्षा में

    सम्राट के होठों को ताकते हुए।

    समय उनका

    दरबारी विदूषक भी नहीं है कि

    वह बिला-वजह उनकी प्रशस्ति गाता रहे

    अर्थ खोए

    पुराने और घिसे हुए शब्दों से।

    समय एक चतुर नायक है, वह अनपढ़ मूर्ख

    युवराज नहीं है कि

    पढ़ पाए क्षमता विस्तार के षड्यंत्र अथवा

    गोपनीय समझौते की दलीलें, समझ पाए अपनी

    सुदूर विस्तारित परिणति।

    समय कपड़े बदलने की तरह

    विश्वास और आज्ञाकारिता को, मौक़ा पाते ही

    बदलने वाला जनप्रतिनिधि नहीं है कि

    उसके मुँह में पट्टी बाँधी जा सके

    मोटे अंकों के मुद्रा-विनिमय से अथवा कुछ

    दरबारी सुविधाओं के वायदे करके।

    समय इतना निष्ठुर है कि

    उसके पैरों में घुँघरू बाँधकर उसे

    अपने रंगमहल में

    डिस्को नाच के लिए बाध्य करने वाले

    सम्राट, साम्राज्ञी, पार्षदों को वह

    अपनी एक ही कुटिल हँसी से

    पलक झपकते मिटा सकता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविताएँ 1984 (पृष्ठ 37)
    • संपादक : बालस्वरूप राही
    • रचनाकार : सरोज रंजन महांति
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 1984

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