कितनी ही रक्त झराती साँझ में
अकेले-अकेले बैठ
मैंने तेरी बात सुनाई है
छरहरे चंपा गाछ को
हँसोड़ नखराली मोगरे की लता को
निःशब्द उड़ जाती एकाकी गौरैया को
सयाने बच्चे-सी पंख समेट बैठी रंगीन तितली को
कहाँ रही, तुम अब
चंपा, मोगरा, गौरैया या तितली भर नहीं रही
तुम्हें उसने यों, मेरी तरह, अकेले बैठे-बैठे
देखा है, छुआ है, जूड़े में लगाया, नेह किया है!!
प्रियतमा, याद रखो
हम सब बीते कल से,
सारे आज से बड़े हैं,
हम बड़े हैं अपने अतीत से, पुनर्जन्म से,
और हमसे बड़ी प्रबल प्रतापी है वह निर्जनता
सारे कर्म, करण, संप्रदान के वे हैं अलंघ्य कर्ता।
पता नहीं कैसा पतझरी चैत
तुम्हें लाया मेरी कविता में
कौन उन्मादी फागुन
तुम्हारी आँख से चुराकर रंग
बोर गया पेड़-पौधे
फूल-पत्तों आकाश में
मेरे हर शब्द को कर गया उच्चाट,
निजन चैत, उन्मादी फागुन आने पर
फिर लगती नेह, आँसू,
शब्दों की भरी पूरी हाट।
हमारी शेषदशा, जो प्रतीक्षा में है राह के मोड़ पर
वह कभी हो नहीं सकती मृत्यु !
हमारे रक्त में कामना है कि हर नवपत्र,
हमारे सपनों का रंग आकाश की खुली आँख में
अतः शेष दशा
यह एकाकीपन, अनमना-भाव
कोई नहीं, कोई नहीं दुपहर में,
कौवे की एकाकी काँव-काँव
सुनसान निर्जनता
एकाकी बटोही,
असीम तक फैला सूना रास्ता।
कभी-कभी लगता है अब हमारे चारों ओर
भरे हैं बेशुमार शब्द
हर दिशा में शब्द ही शब्द, केवल शब्द
भरे ठुँसे, धक्कमपेल, हाँय-हाँय, अँधेरे शब्द
शब्द रूप, शब्द रस
शब्द गंध, शब्द स्पर्श
न तुम मुझे देख पाती, न मैं तुम्हें
हाथों से मेरे छिटककर गुम जाती शब्दों की भीड़ में
डूब जाती शब्दों के सागर में तुम
उन शब्दों के सागर में तुम
नाक-कान में पानी भरते समय खोजता तुम्हें
यही कहने कि
सारे शब्द ख़त्म होने पर जो बच रहता वही है प्रेम
सारे शब्द चुकने पर जो बच रहता वही है कविता।
पृथ्वी का सारा संकोच,
भय और सिहरन ले
कुछ पुरोहित के निर्देश पर
जो हथेली मेरी हथेली पर स्थिर हो गई,
मानो आकाश झुक आता क्षितिज पर,
मंत्र, दूर्वा, अक्षर, जल ने उन्हें गूंथ दिया
निराली, पवित्र, निजन आंतरिकता में
वही निजनता क्रमशः विस्तार करती अपना साम्राज्य
अनेक करद राज्य,
बेटे, पोते, पड़पोते
पात्र, मंत्री, पारषद सिंधुघोष जीतकर।
केवल निजनता जम्हाई लेती
एक आँख मूँद सो जाने पर
उसके आगे ख़ाली रात का आकाश
और गंभीर चाँद,
उनींदी रात की निजनता से मुक्ति नहीं,
मुक्ति कहाँ
जैसे दूसरा एकदम निकट होकर भी कहाँ
बात करते-करते कोई चुप हो जाए
धीरे-धीरे लगता साथ नहीं
सामने युगों से प्रतिष्ठित ओस भींगी मूर्ति
शब्दहीन मुद्राहीन है निर्वाक मूर्ति।
कभी-कभी तुमने सोचा हो
तुम्हारे अलक्ष्य में मैं हो रहा अंतर्हित
तुम्हारे मन के चित्रपट से
भोर के आकाश में सुबह के तारे-सा
विश्व इतिहास से राजतंत्र-सा
अंतर्हित हो रहा और गुमता जा रहा
अप्सरा की कहानी में,
आकाश के नीले मेघ में
आम्रमंजरी की महक के गुप्त मंदिर में
रुक-रुक गाती कोयल के आँसू भरे गीत में।
अब भी तुम्हारा स्वर सुनाई देता अँधेरे में
पहले-सा सदा की तरह
कभी बूढ़ी माँ-सा वह स्वर
गाँव के गहरे कुएँ-सा वह स्वर
परेशान न होने की ताकीद,
और कभी नन्हीं बच्ची-सा वह स्वर
पहाड़ी झरने-सा छल-छल कल-कल।
हम क्या नहीं जानते नेह
जितना गंभीर, जितना दीर्घ होने पर भी
निजनता से बच नहीं सकता,
निजनता ही हमारी नियति,
शेष दशा
निजनता है हमारी साक्षी और साक्ष्य,
हमारी शेष भाषा।
समय के सहस्रनाम में शेष नाम ही निजनता
हम सबको आख़िर वहीं पहुँचना होता।
इसी संग मीत बनना होता,
खिलौना तोड़, मन ऊना किए बैठी बाला को
क्रिकेट के लिए साथी न पाती किशोरी को
नए-नए प्रेम में पड़े युवा-युवती को
जो-जहाँ चला गया,
नीम अँधेरे में शयाशायी बूढ़े को।
लंबे अपराह्न में अधेड़
स्वेटर बुन रही नारी को
सबको, यहाँ तक
जारा शवर को घने जंगल में
प्रतीक्षा कर रहे बैठे ख़ुद ईश्वर को।
- पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 153)
- संपादक : शंकरलाल पुरोहित
- रचनाकार : सीताकांत महापात्र
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2009
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