न लोग बदलते हैं
न आस्थाएँ
केवल समय बदलता है।
तुम मुझे पतझड़ में मिले,
और मन बँध गया।
बसंत का मुझसे बैर
मेरे प्रारब्ध में विधि ने लिखा है?
तुम्हारे पुष्पों पर मेरा
कोई अधिकार नहीं,
जिस हवा में इनकी महक हो
मैं साँस रोक लेती हूँ।
समय का चक्र अनवरत घूमेगा,
पतझड़ कौन रोक पाएगा?
पर अगले बरस
पतझड़ से भी मेरा अलगाव रहेगा।
हर पतझड़ अब अवसरवादी
बसंत की याद दिलाएगा,
पेड़ों के ठूँठ शापित हैं
जो छुएगा वही ठूँठ हो जाएगा।
- रचनाकार : निधि अग्रवाल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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