सितंबर के महीने में मैं अपने भीतर पैदा कर लूँगी भयावह सुनसान
घाटियों की तीतार और ख़ूँख़ार औरत जो तुम्हें बचपन की पहाड़ियों में
घुमा कर फेंक देगी पहाड़ की चोटी से ऊपर,
तुम्हारी फटी हुई
नीली आँखों का शातिर क़त्ल कर देने के लिए तुम्हारे दोस्तों के
गर्म ख़ून से तुम्हारी जाँघें धोने की आवश्यकता है : शताब्दी और
इतिहास तुम्हारी मुट्ठी में न आ पाएँ; केवल तुम रह जाओ अघोरी या
जिघांसु या
तितली के पंखों को मसलने वाले व्यभिचारी बाप, इसलिए तिलिस्म के
रास्ते पर जड़ दिए गए हैं सामाजिक षड्यंत्र; तुम्हारी निस्तेज
आँखों की चमक केवल ले जाती है तुम्हें अँधेरे
कुएँ और खाइयों की ओर!
तुम्हारे दोस्त एक छोटे टीले को हटाने के
लिए तुम्हें सर्पों से भरी फुँफकारती खाई में ढकेल देना चाहते हैं।
मैंने नीत्शे की हड्डियों से वज्र बनाने का संकल्प किया है तुम्हारी गंदी
घिनौनी और गिद्ध जैसी आँखों को फोड़ देने के लिए!
तुम्हारा नाम लेते ही भयावह पंजों में हरकत शुरू हो जाती है और
मादा शेरनी अपने बच्चों के लिए माँद बनाना प्रारंभ
कर देती है।
उदासी एक ख़ूँख़ार और ख़तरनाक औरत का नाम है
जो पसलियों में रेंगकर अंडे देने लगती है।
मुझे हमेशा लगा है
अगर औरत जिंस न होती
औरत होती
तो मैं अपने खौलते रक्त से उगल
सकती थी एक काला चितकबरा पहाड़, जिसके पंख होते और
वह पूरी शताब्दी को दे देता गड्डे का आकार
मैंने
औरत की जाँघों और पुट्ठों और स्तनों से इतर होना चाहता है!
नीत्शे एक पतंगे की भाँति मेरे आस-पास घूमकर आ जाता है
कीर्केगार्द हमेशा उदास रहता है, मेरे पैरों के पास दीमकों ने
खाई कर दी है। मुझे
किसी पर विश्वास नहीं।
...
जनतंत्र के हाथों में विभिन्न रंगों के झंडे हैं ओर उसे लगता है
कि सही रास्ता तालाश करने के लिए ज़रूरी है कि झंडों के रंगों को पहचान
लिया जाए ओर ढूँढ़ ली जाए कोई तरकीब जिससे मैं स्वयं को न पहचान
सकूँ।
मुझे कभी भीड़
अपनी शुभचिंतक नहीं लगी, रास्ते में हमेशा एक गीली खड्ड का दर्रा पड़ता
रहा और चीख़ती आवाज़ें घेरती रहीं मुझे प्रेतात्माओं की भाँति।
हमेशा चौकस उँगलियों को छूता रहा ख़ौफ़नाक भ्रम
कि पूरे देश में मुझे विक्षिप्त कर देने का गुपचुप षड्यंत्र हो रहा है
कि निरंतर मुझे पटक दिया जाता है विभिन्न तिलिस्मों में और की भी
नहीं दिया जाता सोचने का मौक़ा; बहुत बार मैंने हथियार
डाल-देने का निश्चय
किया है : बहुत बार मैंने
सोचा है कि मुझे चुपचाप उदास होकर लौट जाना चाहिए
अगले मोड़ से ; बहुत बार मैंने चाहा है
कि मैं भी लिख दूँ अपना एक ‘मुक्ति प्रसंग’
लेकिन एकदम बिल्कुल झुक जाने के पश्चात् अकस्मात् फूटने लगती है
नए मौसम की गंध, और मुझे लगता है कि
तमाम सारहीन निष्कर्षों के पश्चात्
तमाम अर्थहीन प्रलापों के पश्चात् भी मुझे मुट्ठियों में जकड़ लेना है
तमाम भागती हुई आदतों को और पाल लेना है एक नया भ्रम
बार-बार होने के लिए! मुझे निर्मित करना है एक विषाक्त स्तूप
मनुष्य जैसी आदिम जाति के लिए!
- पुस्तक : महाभिनिष्क्रमण (पृष्ठ 75)
- रचनाकार : मोना गुलाटी
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