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सलमा चाची

salma chachi

दिविक रमेश

दिविक रमेश

सलमा चाची

दिविक रमेश

पड़ोस में ही रहती हैं सलमा चाची और

चाची की ज़ुबान में

तीन-तीन

साँड़नी-सी बेटियाँ

सलमा चाची

हमने तो सुना नहीं

कभी याद भी करती हों अपने ख़सम को

या मुँहजली सौत को

पड़ोस में ही रहती हैं सलमा चाची

पार्क के उस नुक्कड़ वाली झोंपड़ी में

तीन-तीन बेटियाँ हैं साँड़नी-सी

सलमा चाची की छाती पर

सलमा चाची बेऔलाद नहीं हैं

आस औलाद वालों की दिक़्क़त जानती हैं

‘सलमा चाची, सलमा चाची!

अरी इस नाड़े को तो सँभाल

देख तो

कैसा टाँग बरोबर निकला

लटक रहा है।

नाड़े को भी

क्या ज़िंदगी समझ लिया है

जो यूँ इतनी लापरवाही से घिसटने दे रही है ज़मीन पर...’

‘ठहर तो जनम जले

नाड़े के पीछे पड़ा रहता है जब देखो

ले ठूँस लिया नाड़ा अब बोल हरामी।’

‘क्या बोलूँ चाची

तू नहीं समझेगी

नाड़ा ही सँभाला है न?

कौन किसका प्रतीक है नाड़े और ज़िंदगी में

तू नहीं समझेगी

ख़ैर छोड़! और सुना

तेरी हुकटी

ठंडी तो नहीं पड़ गई जवानी-सी

अरी कभी-कभार

हमें भी घूँट भर लेन दिया कर'

‘मैं सब समझूँ हूँ तेरी बात

कम्बख़त

बूढ़ी हो गई हूँ

पर तू छेड़ने से बाज़ नहीं आता’

‘हाँ चाची कैसे आऊँ बाज़ तुझे छेड़ने से

तुझे छेड़ता हूँ

तो लगता है

कोई कोई मक़सद है अभी

ज़िंदगी का!

पर चाची

तू समझे भी तो!

इतने रंगों को घोलते-घोलते भी

तुझे कभी दीखा है

कि ज़िंदगी का भी एक रंग होता है

सफ़ेद-स्याह रंग ही तो नहीं होता

ज़िदंगी का

इन बुढ़ा गए हाथों से

जब तू फटकारती है

रंग चढ़े कपड़ों को

तो मुझे भोत-भोत आस बँधती है

लगता है

तेरे पास भी

कोई आवाज़ है।'

स्रोत :
  • पुस्तक : निषेध के बाद (पृष्ठ 155)
  • संपादक : दिविक रमेश
  • रचनाकार : दिविक रमेश
  • प्रकाशन : विक्रांत प्रेस
  • संस्करण : 1981

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