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साहित्यकार

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बावा बलवंत

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बावा बलवंत

और अधिकबावा बलवंत

    दीप आयु में जलती बाती युग-युग नूर फैलाए

    अंदर की हर बेसुध शक्ति कोमल किरण उड़ाए

    यह है आत्म वेग, जगत में भले अलग हों पानी

    असर है जो यह समझा पर रूह की रंगीन वाणी

    प्रकृति की आत्मा में मिलकर गीत उजागर करने

    ये हैं हमदर्दी के स्रोत और मानवता के झरने

    दान के लिए आया जीवन लेकर नाम बेगाने

    खोल रहे हैं सम्मुख इसके, अपना भेद ज़माने

    खेल नहीं यह इसमें डूबे नौका बीच भँवर में

    भेद महालीला का कोई विरला कह पहचाने

    पहली ही सीढ़ी है इसकी विश्व प्यार आज़ादी

    असली खोज अमिट कोशिश से उमड़े ज्योति कला की

    निशा-दिन के पंखों पे चढ़ कहते जाग मुसाफ़िर

    यह विश्राम थली नहीं तेरी, नहीं मंज़िल यह आख़िर

    जिस पथ दूर उड़ानें हों और थक कल्पना जाए

    उस असीम आनंद में आख़िर ये दुख-सुख उड़ जाए

    भावों की नौका में जाए हरेक कूल का ज्ञाता

    देख रहे निज मन को नाचे हर इक शाश्वत नाता

    शब्द बंद से मन सीपी में मानवता के मोती

    एक पंक्ति खा जाए कालिख एक मंत्र की ज्योति

    परिवर्तन करती विश्व में यह शक्ति की धारा

    पूर्णत्व तक लेकर जाता पूर्णकला के द्वारा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 78)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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