गाँव के दक्खिन में
पोखर की पार से सटा
यह डोम पाड़ा है—
जो दूर से देखने में
ठेठ मेंढ़क लगता है
और अंदर घुसते ही
सूअर की खुडारों में बदल जाता है।
यहाँ की कीच भरी गलियों में पसरी
पीली अलसाई धूप देख
मुझे हर बार लगा है कि—
सूरज बीमार है या—
यहाँ का प्रत्येक बाशिंदा
पीलिया से ग्रस्त है
इसीलिए उनके जवान चेहरों पर
मौत से पहले का पीलापन
और आँखों में
ऊसर धरती का बौनापन
हर पल पसरा रहता है।
इस बदबूदार—
छत के नीचे जागते हुए
मुझे कई बार लगा है कि—
मेरी बस्ती के सभी लोग
अजगर के जबड़े में फँसे
ज़िंदा रहने को छटपटा रहे हैं
और मैं नगर की सड़कों पर
कनकौए उड़ा रहा हूँ।
कभी-कभी
ऐसा भी लगा है कि
गाँव के चंद चालाक लोगों ने
लठैतों के बल पर
बस्ती के स्त्री, पुरुष और
बच्चों के पैरों के साथ
मेरे पैर भी
सफ़ेद हाथी की पूँछ से
कस कर बाँध दिए हैं।
मदांध हाथी—
लदमद भाग रहा है
हमारे बदन
गाँव की कँकरीली
गलियों में घिसटते हुए
लहूलुहान हो रहे हैं।
हम रो रहे हैं
गिड़गिड़ा रहे हैं
ज़िंदा रहने की भीख माँग रहे हैं
गाँव तमाशा देख रहा है
और हाथी
अपने खंभे जैसे पैरों से
हमारी पसलियाँ कुचल रहा है
मवेशियों को रौंद रहा है
झोपड़ियाँ जला रहा है
गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर
बंदूक़ दाग़ रहा है और हमारे
दुधमुँहे बच्चों को
लाल लपलपाती लपटों में
उछाल रहा है।
इससे पूर्व कि यह उत्सव
कोई नया मोड़ ले
शाम थक चुकी है
हाथी देवालय के
अहाते में आ पहुँचा है
साधक शंख फूँक रहा है
साधक मजीरा बजा रहा है
पुजारी मानस गा रहा है
और वेदी की रज
हाथी के मस्तक पर लगा रहा है
देवगण प्रसन्न हो रहे हैं
कलियर भैंसे की पीठ चढ़ यमराज
लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं
शब्बीरा नमाज़ पढ़ रहा है
देवताओं का प्रिया राजा
मौत से बचे हम
स्त्री-पुरुष और बच्चों को
रियायतें बाँट रहा है
मुआवज़ा दे रहा है
दिशाओं में गूँज रहा है...
अँधेरा बढ़ता जा रहा है
और हम अपनी लाशें
अपने कंधों पर टाँगे
सँकरी-बदबूदार गलियों में
भागे जा रहे हैं
हाँफे जा रहे हैं
अँधेरा इतना गाढ़ा है कि
अपना हाथ
अपने ही हाथ को पहचानने में
बार-बार गच्चा खा रहा है।
- पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 36)
- संपादक : कँवल भारती
- रचनाकार : मलखान सिंह
- प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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