सफल मानुष
अक्सर गिर जाता है
गुमान के जोर में
वह गिरता है ओलों की मानिंद
गरजता है तो उन बादलों की तरह
जिनमें आवाज़ होती है बरसात नहीं
बहता है तूफ़ान की तरह
उड़ा ले जाता है झोपड़ी, झुग्गी और खलिहान
उसके निगाहों में गड़ जाती है
अपने ही भाई और चाचा की ज़मीन
उसकी उड़ान में छूट जाता उसका गाँव
उसके पड़ाव में नहीं आता
अपने संघर्षरत दोस्तों का मकान
वह हर उस चीज़ की क़ीमत तय करता
जिसका कोई बाज़ार नहीं होता
मुद्राओं से तौल देना चाहता है
प्रेम, ईमानदारी और दुःख के दिनों को भी
उसे अपना तमग़ा इतना भारी लगने लगता
नहीं बन पाता वह तमग़े के बाहर का इंसान
सफल मानुष होना यदि यही है
बज्र पड़े उस मानुष पर
जिसे होना था महोगनी1
वह काँटों के झाड़ में बदल गया
- रचनाकार : धीरेंद्र 'धवल'
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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