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सदियों का ब्लैक होल

sadiyon ka blaik hol

द्वारिका उनियाल

द्वारिका उनियाल

सदियों का ब्लैक होल

द्वारिका उनियाल

और अधिकद्वारिका उनियाल

    एक दिन मिट्टी खोदी मैंने

    अपनी पहचान-सी खोजी मैंने

    कुछ कंकर निकले

    कुछ दबी हुई मुर्दा जड़ें भी

    परत-दर-परत

    मिट्टी के रंग बदले

    मेरी खंडित विरासतों के

    जाने कितने रूप बदले

    जिन देवताओं को भूल आया था

    पुरखों के उस घर में

    उनके कुछ अँश निकले

    मीलों गहरी

    वास्तविकताओं से परे

    एक नए भू-गर्भ में प्रवेश किया जैसे

    ना वो धरा है

    ना पाताल

    ब्रह्माँड का वो हिस्सा

    जिसे ना त्रिलोक मे जगह मिली

    ना त्रिदेव ने स्वीकारा

    यहाँ ना आसमान नीला है

    ना मिट्टी का लेप गीला है

    बस धू-धू कर उड़ती है रेत

    खारी है हवा

    और

    समंदर कहीं नहीं

    मरते सूरजों

    की रश्मियाँ दफ़न हैं यहाँ

    ना मनुष्य की श्वास

    ना आत्मा का वास

    वीरानियाँ अपने सन्नाटे गिनती हैं

    खुली आँखों की नींद में

    सपने चीखते हैं

    अपने अहम् के वक्ष को

    वो मृत्यु से चीरते हैं

    एक क्षण

    एक युग मानो

    आदि भी

    अंत ही

    यही सत्य

    यहीं सत्य

    ना भूत

    ना भविष्य

    रुके हुए समय का

    यही है

    यहीं है

    सदियों का ब्लैक होल

    स्रोत :
    • रचनाकार : द्वारिका उनियाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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