सच मानो या न मानो
sach mano ya na mano
मेरी आशा बड़ी ज़िंदादिल है
तुम सच मानो या न मानो।
मेरा दुःख बड़ा आत्मीय है
तुम विश्वास करो या न करो;
मैंने कहा न?
कि मेरे आँसू होते हैं गरम
ख़ूब गरम
और उन्हें ये ताप
तुमने ही दिया है;
इसे तुम सच मानो या न मानो।
निराशा की कड़वी शराब पीकर
नशे में मस्त होकर,
उदास दीवारो के पास
खड़े-खड़े मैं गाता हूँ;
और अजाने ही
सुबह का गीत
फूट पड़ता है;
ये विश्वास और प्रेरणा भी
तुम्हारी ही है;
तुम सच मानो या न मानो।
मैं जो ये कहता हूँ
कि मेरा दर्द
मेरे लिए एक वरदान की तरह है;
और उसमें सपने देखने वाली
मेरी व्यथित चेतना है;
और उन सपनों का ऐश्वर्य ऐसा है
कि मौत भी
आश्चर्य से पागल हो जाती है;
और ये सब बादशाहत तुम्हारी है
तुम सच मानो या न मानो।
मैं जानता हूँ
और ये सच है
कि सारे दिए बुझ चुके हैं
भय के आतंक से
द्वार सभी बंद हुए,
जो इक्के-दुक्के लोग बचे हैं
उनकी ज़ुबान भी लड़खड़ाती
हकलाती है;
और दूसरे ही क्षण
खौफ़नाक डर से चुप हो जाती है
चारों तरफ़ ख़ामोशी
दहशत, और सन्नाटा
ऐसी भयानक रात में;
मेरा पहाड़ी स्वर
ऊँची आवाज़ में
निर्भय हो गाता है
जागृति का मुक्त छंद।
मौत के सामने भी
मेरा यह आत्म-विश्वास
तुम्हारा है;
यह जयघोष
तुम्हारा ही है;
तुम सच मानो या न मानो।
- पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 211)
- रचनाकार : शरच्चंद्र मुक्तिबोध
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
- संस्करण : 1965
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