पाश को पढ़ते हुए
ख़ून पहले आदमी के सिर पर सवार होता है
फिर उसका इल्ज़ाम वह जीवन भर ढोता है।
मामूली विवादों में भी विवेक के चूहे को
दबोच लेती है क्रोध की बिल्ली,
आदमी कुछ समझ पाए
इससे पहले बिखर जाती है जीवन की तिल्ली।
इलहाम होने पर वह पछताता है,
दंड भोगता है और हत्यारा कहलाता है।
ठंडे दिमाग़ वाले हत्यारे
अपनी कला और गणित पर इतराते हैं,
इतनी सधी चालें हैं उनके पास
वे अपनी पीठ थपथपाते हैं।
तभी घोल देता है समय उसमें सच का रसायन,
टूट जाता है उनका बनाया कला और गणित का आयन।
उनके दामन के दाग़ अब साफ़ नज़र आते हैं,
क़ानून और समाज की नज़र में वे हत्यारे कहलाते हैं।
कुछ हत्यारे होते हैं पेशेवर,
बाहर से दिखते जो निर्भीक, निडर।
मगर भीतर से सहमे और डरे,
हताश, लिजलिजे और मरे-मरे।
जो भागते हैं न्याय से जीवन भर,
चले जाते हैं एक दिन समाज से ही बाहर।
जिन्हें जीवन ने हमेशा ही यह कहकर दुत्कारा है,
कि यह आदमी नहीं हत्यारा है।
कुछ हत्यारे इतने शातिर होते हैं,
कि उनकी बंदूक़ें किसी और के कंधे ढोते हैं।
उनकी तरकश में होते हैं हमेशा दो तीर,
एक साधे असली निशाना, दूसरा बनाए दानवीर।
दिन-रात लगे रहते हैं वे असली चेहरे को छिपाने में,
मगर एक दिन फ़ैल ही जाती है बात ज़माने में।
बाज़दफ़ा वे क़ानून से बच भी जाते हैं,
मगर समाज की नज़र में हत्यारे ही कहलाते हैं।
और वे जो उगलते हैं समाज में आतंक का ज़हर
गाँव दर गाँव, शहर दर शहर।
कि सड़क पर चलने वाला आदमी भी डरा रहे,
बाज़ार या ट्रेन में भी दहशत से भरा रहे।
जो किसी ख़ास को मारने के लिए नहीं निकलते,
बस कोई भी मर जाए इतनी बीमार इच्छा रखते।
वे भी अपने कर्मों से डरते हैं,
जीते कम, अधिक मरते हैं।
छिपते हैं, भागते हैं,
दहशत के साये में जीवन को काटते हैं।
उनके दरवाज़े भी होती है एक दिन न्याय की दस्तक,
समाज के आगे झुकता है एक दिन उनका भी मस्तक।
अपने बचाव में वे तमाम फ़लसफ़े लाते हैं,
मगर फिर भी वे हत्यारे ही कहलाते हैं।
मगर वे जो हर सुबह
अपने बच्चे, भाई या भतीजे को स्कूल छोड़ने जाते हैं,
काम पर निकलते हैं
और दिन भर अपना जाँगर खटाते हैं।
शाम को ख़ुश होते हैं परिवार के बीच लौटकर,
रात में सोते हैं पत्नी को अंकवार में भरकर।
मगर एक अफ़वाह पर तनकर हो जाते हैं खड़े,
क़ानून हाथ में लिए भीड़ बनकर अड़े।
किसी रास्ते या चौराहे पर,
ट्रेन या किसी दरवाज़े पर।
टूट पड़ते हैं ये लोग,
उनका न्याय, उनका अभियोग।
मरने वाला जान तक नहीं पाता अपना गुनाह,
भीड़ में कुचल जाती है एक निरीह आह।
एक महान काम की तरह वे इसे निबटाते हैं
और गर्व भाव से घर लौट आते हैं।
उनके चेहरे पर न कोई ख़ौफ़, न कोई डर
मन में कोई दुःख भी नहीं, न पश्चाताप का इक असर।
ऐसे मुब्तिला हो जाते हैं वे अपने रोज़मर्रा के कामों में,
जैसे बीते कल कुछ जुड़ा ही नहीं उनके कारनामों में।
बाहर से अगाध पवित्रता और संतों वाली भाषा,
अगली भीड़ जब तक लपक न ले
वही अभिनय, वही तमाशा।
तलाश में पहुँचती है पुलिस
जब उनके मोहल्ले या गाँव पर,
उनकी पत्नियाँ, माँएँ और बेटियाँ
खड़ी हो जाती हैं ढाल बनकर।
वे तो बिल्कुल पारिवारिक आदमी हैं
एकदम-से साधारण,
जिसने कभी चींटी तक नहीं मारी
उसे फँसाया गया है अकारण।
वे समाज से कुछ इस तरह से लिपट जाते हैं,
कि न्याय के बढ़े हुए हाथ भी सिमट जाते हैं।
हार जाता है क़ानून उन्हें समाज से अलगाने में,
कोई फाँक नहीं दिखाई देती उनके और ज़माने में।
जो समाज की नसों में अपना सारा ज़हर उड़ेल देते हैं,
जी हाँ... वे सबसे ख़तरनाक हत्यारे होते हैं
जो पूरे समाज को ही हत्यारे के रूप में बदल देते हैं...
जो पूरे समाज को ही हत्यारे के रूप में बदल देते हैं...।
- रचनाकार : रामजी तिवारी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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