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सब कुछ अच्छा बेअसर है

sab kuch achchha beasar hai

ब्रज श्रीवात्सव

ब्रज श्रीवात्सव

सब कुछ अच्छा बेअसर है

ब्रज श्रीवात्सव

इस तरह से घिराव हुआ यहाँ का

परछाईं के क़दम हैं इसी ओर

चौतरफ़ा वैसे तो ज़्यादा ख़राब नहीं

बस कोई विचार बो दिया गया ग़लत तरह से

आँखों में तने हुए रेशे फैलते के पहले ही उलझ गए

सोचते हुए गुमसुम अनमने हैं पत्ते

जो हिलते जा रहे हैं

गवाह बनने के भय से बचती हुई निकल रही है धूप

उदासी और ख़ुशी की बीच

खड़ी हो रही है तनाव की दीवार

ख़ामोशी के मुमकिन हैं ख़तरे बढ़ जाएँ

आवाज़ें सहमी हुई हैं

आँखों का यह अभिनय है कि

कोई समझ सके असली बात

ठीक-ठाक पेशगी के बावजूद

सब कुछ अच्छा बेअसर है

बनते जा रहे हैं हर जगह

संदेहों के गहरे आकार

स्रोत :
  • पुस्तक : साक्षात्कार 275 (पृष्ठ 58)
  • संपादक : भगवत रावत
  • रचनाकार : ब्रज श्रीवास्तव

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