राजगृह में वह श्रीमती रूपसी गणिका लालसा-निलय
नगर का बहु धैर्य टूटा है उसकी रूप-शिखा में
उसके रूप से विदग्ध एक बार एक भिक्षु गया था भिक्षार्थ
प्रभु बुद्ध को हुआ यह ज्ञान, कहा कुछ नहीं, रहे निस्तब्ध
हठात् नगर में श्रीमती की मृत्यु की बात फैल गई
बुद्ध ने सुना, आदेश दिया विनष्ट न हो उसका मृत शरीर
तीन दिन के बाद बुद्ध शिष्यों सहित गए नगर के श्मशान को
मँगाकर श्रीमती का शव वहाँ रखवाया सबके सामने
रूपमूढ़ भिक्षु के साथ राजा मंत्री सहित बहु नागरिक
बुद्ध वाणी श्रवणार्थ उपस्थित हुए नगर के श्मशान में
रूपसी श्रीमती अब दिखाई देती है विकराल, जघन्य, कुत्सित
मक्खियों की चराभूमि, दुर्गंधित वीभत्स, स्फीत, विगलित
सबको चित्रवत् देख कहा तथागत ने—
यही तो मानव देह वसन-भूषण से लगती है सुंदर
क्षतमय, रोगाकुल, ईर्ष्या, तृषामय, पंकिल, भंगुर
यही तोड़कर धैर्य मानव को करते हैं व्याकुल, उद्भ्रांत
यह कहकर स्वल्प-भाषी स्थितप्रज्ञ प्रभु धीरे से चल दिए
भिक्षु और जनता लगी सोचने रूपतत्त्व मन की गहराई में।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 89)
- रचनाकार : मायाधर मानसिंह
- प्रकाशन : साहित्य अकादमी
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