रणथंभोर
ranthambhor
डूबते काँपते अँधेरे में हमेशा मिल जाता है दूर किसी लालटेन का पेड़
क़िले में उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं हम जीवन के ढलान से उतरने के लिए
हमेशा के लिए मूर्तिशिल्प हो जाते हैं पेड़ों से रचे दृश्य
तालाब लिख रहा है कुछ शब्द भीतर हरे, अनपढ़े
जैसे काँटों और करवटों में उलझा हुआ हो आकाश
आधा चंद्र
पीलियाग्रस्त हवा में मील के पत्थर भूलती तितलियाँ
अंधकार की गोद में लेटा ऊँघता है गणेश मंदिर
दूर से आती है बाघ की हुंकार
पानी पर उतरा शाम का रंग और हताशा...
पहाड़ों ने खा लिए हैं चिड़ियों के बिंब और वे थक कर सो रहे हैं
औरतें दहाड़ों के बीच थाप रही हैं उपले
फूँक रही हैं चूल्हे
और आदमी बीड़ी पीते हुए अभयारण्य में मवेशी चरा रहे हैं
समय की बुहारी से
बुहारा जा चुका है नौ सौ साल का समय
अँधेरे के पानी में किसी मछली जैसा डूब गया है
ढहता हुआ क़िला रणथंभोर...
आओ, रज़िया सुलतान!
बार फिर आओ-
अब तुम्हारे लिए पुराने लोहे का यह विशाल फाटक हर वक़्त खुला है।
- रचनाकार : हेमंत शेष
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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