बीबु के लिए
मैं भीग रहा था,
वह रो रही थी।
ढीला हुआ तनाव,
चाहकर भी
पोंछ नहीं सका आँसू।
यही, बिल्कुल सही,
कविता लिखता रह गया।
कितने बूढ़े रोए तो
बने उपन्यास;
कितने बच्चे बिलखे
तो कहानियाँ;
कितनी औरतें रोईं
तो उतरी कविता।
वह सिसकती रही,
मैं कुछ कर नहीं सका।
मैं भी रो न पडूँ
हाथ में रख दिया
उसने हृदय।
क्या करूँ इसका,
समझ नहीं सका।
बहने लगी संवेदना
डूबने लगा तार-तार मन।
मैंने बार-बार रूमाल निकाला,
पर कविता को पोंछ नहीं सका।
हत्यारे पीते हैं ख़ून;
तितलियाँ पराग-कण
वकील थाम लेते हैं मुक़दमा;
प्रतकार सूँघ लेते हैं ख़बर;
गए-गुज़रे हैं कवि
आँसू से छानते हैं कविता।
चायघर में धुआँ
दफ़्तर में शोर,
भीड़ और चेहरे,
नहीं मिला एकांत
कहाँ मैं आँसू पोंछता!
पानी पर पानी के गिलास,
चाय के जाम और मठरियाँ।
वह बार-बार माफ़ी माँग रही थी।
उसने तोड़ दिया विश्वास,
जोड़ने की कोशिश में
क्या-क्या तोड़ देते हम!
टूट गया सब कुछ
यही टूट,
यही छूट
जोड़ रही थी
मुझे, उसे और कविता को।
रातों-रात रोती रही,
पति और बच्चों से छिपकर।
धुआँ-धुआँ चारों ओर,
शोर पर शोर,
टूटता-जुड़ता हूँ मैं
जब-जब रोती है वह।
मैं नहा रहा था
कि सिसकी सुनी,
पी रहा था चाय, सिगरेट,
तोड़ता था रोटी,
कि गले में अटकी हिचकी उसकी।
दफ़्तर में सुने उसके आँसू,
सड़क गीली थी उनसे।
भीगी थीं चाय की दुकानें
धुँध और कोहरे के पार,
चमक रहे थे आँसू।
कितने रेगिस्तानों, बीहड़ों
नदियों, समुद्रों के पार
मिलेगा वह एकांत,
जहाँ सुखा लूँ गीली कविताएँ
पोंछ दूँ
उसके आँसू।
- पुस्तक : कवि ने कहा (पृष्ठ 121)
- रचनाकार : इब्बार रब्बी
- प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
- संस्करण : 2012
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