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धीरे-धीरे

dhire dhire

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

और अधिकसर्वेश्वरदयाल सक्सेना

    भरी हुई बोतलों के पास

    ख़ाली गिलास-सा

    मैं रख दिया गया हूँ।

    धीरे-धीरे अँधेरा आएगा

    और लड़खड़ाता हुआ

    मेरे पास बैठ जाएगा।

    वह कुछ कहेगा नहीं

    मुझे बार-बार भरेगा

    ख़ाली करेगा,

    भरेगा—ख़ाली करेगा,

    और अंत में

    ख़ाली बोतलों के पास

    ख़ाली गिलास-सा

    छोड़ जाएगा।

    मेरे दोस्तो!

    तुम मौत को नहीं पहचानते

    चाहे वह आदमी की हो

    या किसी देश की

    चाहे वह समय की हो

    या किसी वेश की।

    सब-कुछ धीरे-धीरे ही होता है

    धीरे-धीरे ही बोतलें ख़ाली होती हैं

    गिलास भरता है,

    हाँ, धीरे-धीरे ही

    आत्मा ख़ाली होती है

    आदमी मरता है।

    उस देश का मैं क्या करूँ

    जो धीरे-धीरे लड़खड़ाता हुआ

    मेरे पास बैठ गया है।

    मेरे दोस्तो!

    तुम मौत को नहीं पहचानते

    धीरे-धीरे अँधेरे के पेट में

    सब समा जाता है,

    फिर कुछ बीतता नहीं

    बीतने को कुछ रह भी नहीं जाता

    ख़ाली बोतलों के पास

    ख़ाली गिलास-सा सब पड़ा रह जाता है—

    झंडे के पास देश

    नाम के पास आदमी

    प्यार के पास समय

    दाम के पास वेश,

    सब पड़ा रह जाता है

    ख़ाली बोतलों के पास

    ख़ाली गिलास-सा

    'धीरे-धीरे'—

    मुझे सख़्त नफ़रत है

    इस शब्द से।

    धीरे-धीरे ही घुन लगता है

    अनाज मर जाता है,

    धीरे-धीरे ही दीमकें सब-कुछ चाट जाती हैं

    साहस डर जाता है।

    धीरे-धीरे ही विश्वास खो जाता है

    सकंल्प सो जाता है।

    मेरे दोस्तो!

    मैं उस देश का क्या करूँ

    जो धीरे-धीरे

    धीरे-धीरे ख़ाली होता जा रहा है

    भरी बोतलों के पास

    ख़ाली गिलास-सा

    पड़ा हुआ है।

    धीरे-धीरे

    अब मैं ईश्वर भी नहीं पाना चाहता,

    धीरे-धीरे

    अब मैं स्वर्ग भी नहीं जाना चाहता,

    धीरे-धीरे

    अब मुझे कुछ भी नहीं है स्वीकार

    चाहे वह घृणा हो चाहे प्यार।

    मेरे दोस्तो!

    धीरे-धीरे कुछ नहीं होता

    सिर्फ़ मौत होती है,

    धीरे-धीरे कुछ नहीं आता

    सिर्फ़ मौत आती है,

    धीरे-धीरे कुछ नहीं मिलता

    सिर्फ़ मौत मिलती है,

    मौत—

    ख़ाली बोतलों के पास

    ख़ाली गिलास-सी।

    सुनो,

    ढोल की लय धीमी होती जा रही है

    धीरे-धीरे एक क्रांति-यात्रा

    शव-यात्रा में बदल रही है।

    सड़ाँध फैल रही है—

    नक़्शे पर देश के

    और आँखों में प्यार के

    सीमांत धुँधले पड़ते जा रहे हैं

    और हम चूहों-से देख रहे हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 159)
    • रचनाकार : सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1989

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