एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन
ek bhutapurw widrohi ka aatm kathan
गजानन माधव मुक्तिबोध
Gajanan Madhav Muktibodh
एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन
ek bhutapurw widrohi ka aatm kathan
Gajanan Madhav Muktibodh
गजानन माधव मुक्तिबोध
और अधिकगजानन माधव मुक्तिबोध
दु:ख तुम्हें भी है,
दु:ख मुझे भी।
हम एक ढहे हुए मकान के नीचे
दबे हैं।
चीख़ निकलना भी मुश्किल है,
असंभव...
हिलना भी।
भयानक है बड़े-बड़े ढेरों की
पहाड़ियों-नीचे दबे रहना और
महसूस करते जाना
पसली की टूटी हुई हड्डी।
भयंकर है! छाती पर वज़नी टीलों
को रखे हुए
ऊपर के जड़ीभूत दबाव से दबा हुआ
अपना स्पंद
अनुभूत करते जाना,
दौड़ती रुकती हुई धुकधुकी
महसूस करते जाना भीषण है।
भयंकर है।
वाह क्या तजुर्बा है!!
छाती में गड्ढा है!!
पुराना मकान था, ढहना था, ढह गया,
बुरा क्या हुआ?
बड़े-बड़े दृढ़ाकार दंभवान
खंभे वे ढह पड़े!!
जड़ीभूत परतों में, अवश्य, हम दब गए।
हम उनमें रह गए,
बुरा हुआ, बहुत बुरा हुआ!!
पृथ्वी के पेट में घुसकर जब
पृथ्वी के हृदय की गरमी के द्वारा सब
मिट्टी के ढेर ये चट्टान बन जाएँगे
तो उन चट्टानों की
आंतरिक परतों की सतहों में
चित्र उभर आएँगे
हमारे चेहरे के, तन-बदन के, शरीर के,
अंतर की तस्वीरें उभर आएँगी, संभवतः,
यही एक आशा है कि
मिट्टी के अँधेरे उन
इतिहास-स्तरों में तब
हमारा भी चिह्न रह जाएगा।
नाम नहीं,
कीर्ति नहीं,
केवल अवशेष, पृथ्वी के खोदे हुए गड्ढों में
रहस्यमय पुरुषों के पंजर और
ज़ंग-खाई नोकों के अस्त्र!!
स्वयं कि ज़िंदगी फ़ॉसिल कभी
नहीं रही,
क्यों हम बाग़ी थे,
उस वक़्त,
जब रास्ता कहाँ था?
दीखता नहीं था कोई पथ।
अब तो रस्ते-ही-रस्ते हैं।
मुक्ति के राजदूत सस्ते हैं।
क्योंकि हम बाग़ी थे,
आख़िर, बुरा क्या हुआ?
पुराना महल था,
ढहना था, ढहना गया।
वह चिड़िया,
उसका वह घोंसला...
जाने कहाँ दब गया।
अँधेरे छेदों में चूहे भी मर गए,
हमने तो भविष्य
पहले कह रखा था कि-
केंचुली उतारता साँप दब जाएगा अकस्मात्,
हमने तो भविष्य पहले कह रखा था!
लेकिन अनसुनी की लोगों ने!!
वैसे, चूँकि
हम दब गए, इसलिए
दु:ख तुम्हें भी है,
मुझे भी।
नक्षीदार कलात्मक कमरे भी ढह पड़े,
जहाँ एक ज़माने में
चूमे गए होंठ,
छाती जकड़ी गई आवेशालिंगन में।
पुरानी भीतों की बास मिली हुई
इक महक तुम्हारे चुंबन की
और उस कहानी का अंगारी अंग-स्पर्श
गया, मृत हुआ!
हम एक ढहे हुए
मकान के नीचे दबे पड़े हैं।
हमने पहले कह रखा था महल गिर
जाएगा।
ख़ूबसूरत कमरों में कई बार,
हमारी आँखों के सामने,
हमारे विद्रोह के बावजूद,
बलात्कार किए गए
नक्षीदार कक्षों में।
भोले निर्व्याज नयन हिरनी-से
मासूम चेहरे
निर्दोष तन-बदन
दैत्यों की बाँहों के शिकंजों में
इतने अधिक
इतने अधिक जकड़े गए
कि जकड़े ही जाने के
सिकुड़ते हुए घेरे में वे तन-मन
दबते-पिघलते हुए एक भाप बन गए।
एक कुहरे की मेह,
एक धूमैला भूत,
एक देह-हीन पुकार,
कमरे के भीतर और इर्द-गिर्द
चक्कर लगाने लगी।
आत्म-चैतन्य के प्रकाश--
भूत बन गए।
भूत-बाधा-ग्रस्त
कमरों को अंध-श्याम साँय-साँय
हमने बताई तो
दंड हमीं को मिला,
बाग़ी करार दिए गए,
चाँटा हमीं को पड़ा,
बंद तहख़ाने में--कुओं में फेंके गए,
हमीं लोग!!
क्योंकि हमें ज्ञान था,
ज्ञान अपराध बना।
महल के दूसरे
और-और कमरों में कई रहस्य--
तकिए के नीचे पिस्तौल,
गुप्त ड्रॉअर,
गद्दियों के अंदर छिपाए-सिए गए
ख़ून-रंगे पत्र, महत्त्वपूर्ण!!
अजीब कुछ फ़ोटो!!
रहस्य-पुरुष छायाएँ
लिखती हैं
इतिहास इस महल का।
अजीब संयुक्त परिवार है--
औरतें व नौकर और मेहनतकश
अपने ही वक्ष को
खुरदुरा वृक्ष-धड़
मानकर घिसती हैं, घिसते हैं
अपनी ही छाती पर ज़बर्दस्ती
विष-दंती भावों का सर्प-मुख।
विद्रोही भावों का नाग-मुख।
रक्त लुप्त होता है!
नाग जकड़ लेता है बाँहों को,
किंतु वे रेखाएँ मस्तक पर
स्वयं नाग होती हैं!
चेहरे के स्वयं भाव सरीसृप होते हैं,
आँखों में ज़हर का नशा रंग लाता है।
बहुएँ मुँडेरों से कूद अरे!
आत्महत्या करती हैं!!
ऐसा मकान यदि ढह पड़ा,
हवेली गिर पड़ी
महल धराशायी, तो
बुरा क्या हुआ?
ठीक है कि हम भी तो दब गए,
हम जो विरोधी थे
कुओं-तहख़ानों में क़ैद-बंद
लेकिन, हम इसलिए
मरे कि ज़रूरत से
ज़्यादा नहीं, बहुत-बहुत कम
हम बाग़ी थे!!
मेरे साथ
खंडहर में दबी हुई अन्य धुकधुकियों,
सोचो तो
कि स्पंद अब...
पीड़ा-भरा उत्तरदायित्व-भार हो चला,
कोशिश करो,
कोशिश करो,
जीने की,
ज़मीन में गड़कर भी।
इतने भीम जड़ीभूत
टीलों के नीचे हम दबे हैं,
फिर भी जी रहे हैं।
सृष्टि का चमत्कार!!
चमत्कार प्रकृति का ज़रा और फैलाए।
सभी कुछ ठोस नहीं खँडेरों में।
हज़ारों छेद, करोड़ों रंध्र,
पवन भी आता है।
ऐसा क्यों?
हवा ऐसा क्यों करती है?
ऑक्सीजन
नाक से
पी लें ख़ूब, पी लें!
आवाज़ आती है,
सातवें आसमान में कहीं दूर
इंद्र के ढह पड़े महल के खंडहर को
बिजली कि गेतियाँ व फावड़े
खोद-खोद
ढेर दूर कर रहे।
कहीं से फिर एक
आती आवाज़--
'कई ढेर बिलकुल साफ़ हो चुके'
और तभी--
किसी अन्य गंभीर-उदात्त
आवाज़ ने
चिल्लाकर घोषित किया--
''प्राथमिक शाला के
बच्चों के लिए एक
खुला-खुला, धूप-भरा साफ़-साफ़
खेल कूद-मैदान सपाट अपार-
यों बनाया जाएगा कि
पता भी न चलेगा कि
कभी महल था यहाँ भगवान् इंद्र का''
हम यहाँ ज़मीन के नीचे दबे हुए हैं।
गड़ी हुई अन्य धुकधुकियो,
ख़ुश रहो
इसी में कि
वक्षों में तुम्हारे अब
बच्चे ये खेलेंगे।
छाती की मटमैली ज़मीनी सतहों पर
मैदान, धूप व खुली-खुली हवा ख़ूब
हँसेगी व खेलेगी।
किलकारी भरेंगे ये बालगण।
लेकिन, दबी धुकधुकियो,
सोचो तो कि
अपनी ही आँखों के सामने
ख़ूब हम खेत रहे!
ख़ूब काम आए हम!!
आँखों के भीतर की आँखों में डूब-डूब
फैल गए हम लोग!!
आत्म-विस्तार यह
बेकार नहीं जाएगा।
ज़मीन में गड़े हुए देहों की ख़ाक से
शरीर की मिट्टी से, धूल से।
खिलेंगे गुलाबी फूल।
सही है कि हम पहचाने नहीं जाएँगे।
दुनिया में नाम कमाने के लिए
कभी कोई फूल नहीं खिलता है
हृदयानुभव-राग अरुण
गुलाबी फूल, प्रकृति के गंध-कोष
काश, हम बन सकें!
- पुस्तक : चाँद का मुँह टेढ़ा है (पृष्ठ 79)
- रचनाकार : गजानन माधव मुक्तिबोध
- प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
- संस्करण : 2015
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.