फटे कपड़ों पर जालीदार पुल बना
कपड़ों का खोया हुआ मधुमास लौटाता रसूल
रसूल के इस हुनर को खुली आँखों से देखा नहीं था
तब न सोचा न जाना था
फटी चीज़ों से इस क़दर प्रेम
ख़ूबसूरत जाल का महीन ताना-बाना
उसकी खुरदरी उँगलियों की छाँव तले
यूँ उकेरता है रसूल
देखने वालों की
जीभ दाँतों तले आ जाती है
और दाँतों को भरे पाले में पसीना आने लगता है
घर के दुखों की राम कहानी को
एक मैले चीथड़े में लपेट कर रख आता है वह
अधरंग की शिकार पत्नी
बेवा बहन
तलाकशुदा बेटी
अनपढ़ और बेकार बेटे के दुख के भार को वैसे भी
हर वक़्त अपने साथ नहीं रखा जा सकता
दुखों के छींटों का घनत्व भी इतना
कि उसके पूरे उफान से जलते चूल्हे की आग भी
एकदम से ठंडी पड़ जाए
माप का मैला फीता
गले में डाल
स्वर्गीय पिता ख़ुदाबख़्स की तस्वीर तले
गर्दन झुकाए ख़ुदा का यह नेक बंदा
कई बंदों से अलग होने के जोखिम को पालता है रसूल
बीवियों के बेल-बूटेदार हिजाबों
सुंदर दुपट्टे,
रंग-बिरंगे रेशमी धागों,
पुरानी पतलूनों के बीच घिरा रसूल रफ़ूगर
उम्मीद का कोई भटका तारा
आज भी उसकी आँखों में टिमटिमाते हुए संकोच नहीं करता
“और क्या रंगीनियाँ चाहिए मेरे जैसे आदमी को”
इस वाक्य को रसूल मियाँ कभी-कभार ख़ुश
गीत की लहर में दुहराया करता है
अपने सामने की टूटी सड़कों
किरमिचे आईनों
टपकते नलों
गंधाते शौचालय की परंपरागत स्थानीयता को
सिर तक ओढ़ कर जीता रसूल
देशजता के हुक्के में दिन-रात चिलम भरता है
अभी-अभी उसने
अपनी अंटी से पचास रुपए निकाल रामदयाल पंडित को दिया है
और ख़ुद फाँके की छाँव में सुस्ताने चल पड़ा है
पक्की दुकान को
बलवाइयों ने तोड़ दिया था
तब से एक खड्डी के कोने में बैठ
कोने को ख़ुदा की सबसे बड़ी नेमत मानता है
ताउम्र ख़ुद के फटे क़मीज़ को नज़रअंदाज़ कर
फटे कपड़ों को रफ़ू करता रसूल
दो दूर के छिटक आए पाटों को इस ख़ूबसूरती से मिलाता है
कि धर्मगुरुओं का मिलन-मैत्री संदेश लगे फीका
किसी दूसरे के फटे में हाथ डालना रसूल को बर्दाश्त नहीं
फटी हुए चीज़ें हैं उसके लिए मानीख़ेज़
इस चक्रव्यूह की उम्र सदियों पुरानी है
एक बनाए
दूसरा पहने
और तीसरा करे रफ़ू
दुनिया इसीलिए ऐसी है
तीन भागों की वीभत्सता में बँटी
जिसमें हर तीसरे को
पहले दो जन का भार है ढोना
रसूल रफ़ूगर जैसा कारीगर
स्थानीयता को धो-बिछा कर
फटे पर चार चाँद टाँकता बैठा है अभी भी गर्दन झुकाए
- रचनाकार : विपिन चौधरी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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