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रास्तों को नमस्कार

raston ko namaskar

अनुवाद : ओमप्रकाश निर्मल

अजंता

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रास्तों को नमस्कार

अजंता

और अधिकअजंता

    मैं जो बोलता है

    वह भाषा भिन्न है

    जब मृत्यु की वांछा प्रज्वलित हो रही है

    मानव-मन की गहराइयों में

    रहस्य द्वार खोल रहे हैं शोर के साथ

    अपने मुँह—

    मैं जो बोलता हूँ वह भाषा भिन्न है!

    सिर प्रभावित है झरने की भाँति

    विभाजित होकर टुकड़ों-टुकड़ों में—

    इसलिए कि अक्षरों की हिंसा कविता नहीं

    और इसलिए कि अक्षरों के प्रासादों में आत्महत्या-सदृश है

    तलवार भाँजना एक उन्मत्त का

    इसलिए मैं प्रच्छन्न राक्षसों से

    दूर-दूर रह कर

    लिख रहा हूँ कविता रास्तों पर चलते हुए

    मार्ग है मेरे प्राण

    मैं अन्वेषित कर रहा हूँ जिस रहस्य-जगत् को—

    वे रक्त-नलिकाएँ हैं उसकी

    क्या देखना चाहते हो नरक-द्वारों के

    बीच खड़े मानव के अंतर्नेत्रों को!

    क्या सुनना चाहते हो

    मानव में अन्तर्भूत मानव का संभाषण

    क्या स्पर्शना चाहते हो मेरे उन हाथों को

    जिन्हें सज्जित कर रहा है चक्रवात?

    मार्ग हैं मेरे रहस्यों के संकेत!

    उस समय जब सूर्य किरणें

    दे रही हैं सजा अदृश्य हत्यारों को

    एक बार निहार लो तुम अपना प्रतिबिंब

    उन स्वेद बिंदुओं में

    जो उग रहे हैं मार्ग की भुजाओं पर—

    पर्याप्त है एक बार सुन लेना

    मार्गों का हृदय-स्पंदन

    उन मार्गों का जो बढ़ रहे हैं

    इतिहास की व्याख्या की तरह!

    मार्ग हैं मेरे जीवन का व्याकरण...

    चलता हुआ हर एक आदमी

    वही है, जो मुझे कर रहा है प्रतिध्वनित

    एक ही भाषा, एक ही संघर्ष,

    एक ही आकृति, एक ही आत्मकथा...

    अपने स्वप्न-जड़ित शरीर को समर्पित

    किया है मैंने इन्हीं मार्गों को

    मेरी रीढ़ की हड्डी की सम्पूर्ण लम्बाई में हैं

    युग-युगों के चरण-कमल

    पताकाएँ, नारे, जेलें, बेड़ियाँ, भूख के कारख़ाने,

    फैली हुई सहस्र, खड्गों जैसी

    अपनी भुजाओं के क़दम-क़दम पर मैं ही हूँ

    जो आई हैं चीर कर मृत्यु के सेनागार को

    मेरे इर्द-गिर्द मनुष्यों पर मनुष्य हैं

    मनुष्य—जो निगल रहे हैं मनुष्यों को

    मनुष्य—जो चल रहे हैं हथेलियों पर उठाए

    रेगिस्तानों को

    मनुष्य—जो पहने हुए हैं वस्त्रों की तरह

    शरदऋतु के खण्डहरों को

    मनुष्य—जो सूली पर चढ़ा रहे हैं

    मनुष्य के भविष्य को

    उन भवनों में, जो खड़े हुए हैं

    सज़ा-वाक्यों की भाँति...

    मनुष्य—जो चमक रहे हैं आँसुओं की तरह

    मनुष्य—जो टपक रहे हैं जलते हुए

    घावों से रक्त-बिंदुओं की तरह

    लेकिन वे वही हैं जो चीर कर रहे बाहर,

    वे वही हैं जो निकल रहे हैं

    छेद कर मेरी आँखों के पीछे

    के रहस्य-जलप्रपातों को

    मार्ग मेरा सर्वस्व है

    नगरों के जंगलों में आधी रात में 

    क्या देखना चाहते हो अग्नि-चक्षुओं को?

    देखना चाहते हो क्या वह दृश्य

    जब आदमी परिवर्तित होता है सिंह में?

    क्या चूमना चाहते हो तुम मेरे वे हाथ

    जो संहार कर रहे हैं भ्रम का?

    मुड़ रहे हैं जहाँ-जहाँ मार्ग वहाँ-वहाँ के

    शिलाखण्डों की चेतावनी, बस एक बार सुनो!

    और पुल के नीचे जल के स्वप्नों में

    देख लो एक बार अपना प्रतिबिंब

    मार्ग मेरा इतिवृत्त है!

    वीथि का महर्षि—जो पान कर रहा है

    अंधकार का हलाहल

    वही है मेरे काव्य का नायक!

    जानते हो, मैं कौन हूँ?

    जानते हो, मुझ पर कौन फेंक रहा है दुखों के मेघ?

    जानते हो, कौन बंदी बना रहा है मेरी वाचा को

    जानते हो, कौन है वह जो

    अँधेरे के गलियारे में मार रहा है

    मुझे सता-सता कर

    जानते हो कौन है वह जो डंक

    मार रहा है मेरे मस्तिष्क पर?

    जानते हो, कौन नीलाम कर रहा है

    बीच बाज़ार जीवन-सौरभ को

    परिव्राजक! नमस्कार कर रहे हो मेघाच्छादित आकाश के नीचे

    रास्ते भर खड़े शिथिल वृक्षों को

    साहसिक! तुम तोड़ कर

    चबा रहे हो विनाशकारी यंत्रों को

    तुम जो परिवर्तित कर रहे हो

    अपने ही हाथों को फाँसी के फंदे में

    तुम कोई और नहीं, मेरे स्वयं के अतिरिक्त!

    क्या मैं काट सकता हूँ उन हाथों को

    जो कर रहे हैं मेरा पीछा

    दारुण मारक ज्वालाओं की तरह

    मानव-निर्मित उस राक्षसी नगर में

    वही क़ैद नहीं है बल्कि मैं भी—

    अदालतों के बीच विष-भाण्डों में

    आदमी के पाँवों के नीचे

    पापपूरित भस्म राशियों में, मैं भी हूँ—

    मार्ग मेरे छंद हैं...

    काफ़ी है, गर स्वच्छ मानव एक क्षण के लिए

    दिखाई दे उस स्वप्न जल में

    जो वह रहा है खण्डित सिर से

    कोई एक नई चेतना

    जहाँ मिल रहे हों दो मार्ग

    वही है एक नई भाषा का उद्गम!

    धूल-धूसरित वृक्ष टपकाता है जिन अक्षर-पुष्पों को

    मैं अलंकृत करता हूँ अपने को उनसे!

    मार्ग मेरे निघंटु हैं,

    वही है मेरा अक्षर-जगत्!!

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 174)
    • संपादक : माधवराव
    • रचनाकार : अजंता
    • प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
    • संस्करण : 1985
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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