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रसिकों का मनोरंजन है यह जीवन

rasikon ka manoranjan hai ye jiwan

ज्याेति शोभा

ज्याेति शोभा

रसिकों का मनोरंजन है यह जीवन

ज्याेति शोभा

और अधिकज्याेति शोभा

    इतनी ही व्यर्थ गई मेरी देह

    बाँसपुकुर की जर्जर साँझ देखते

    जैसे नष्ट होती थी जामदानी साड़ी लोहे के संदूक़ में

    जैसे शैशव से सिखाया गया था आदिवासी बालाओं को

    सुंदर कढ़ाई करने के क़ायदे

    और ज़्यादा मनुहार करवाते समर्पण करने के

    चौमुखी दीप जैसी एक देह के कितने असाध्य प्रेम होंगे

    कितने दुर्गम होंगे गर्भ में आलोक के नियम

    अंधकार और कोलाहल में ही बीत गई रात्रि

    साफ़ मालूम होता बग़ल वाली बाड़ी में रुके हैं बर्मा से आए विद्यार्थी

    बड़बड़ाती तो भी कौन सुनता,

    तालु में जम रही है मृत्यु और तुम हो कि हावड़ा ब्रिज पर जड़ी बूटियाँ बेचते हो

    निमिष भर के स्वाद में जीवन के दाम बताते हो

    एक आध स्थान ही तो हैं देह में जहाँ मंच लगाया जा सकता है

    जहाँ खेले जा सकते हैं भारतेंदु के नाटक

    शेष तो जंगल है जहाँ नदी हो सकती है कूप शायद ही हो

    इतना सुनते ही लवें तक आरक्त हो जाती तुम्हारी

    चित्र देखने लगते हो सुचित्रा सेन के

    कोई अज्ञात कुम्हार की प्रेमिका हो जैसे

    मेरा कहा बरसता है जैसे जल पर बरसता हो जल

    कि रसिकों का मनोरंजन है यह जीवन

    आख़िरकार

    क्या कविता ही व्यर्थ जाती है इस भरे पूरे शहर में

    क्या नहीं खोई है मेरी देह

    जिसे रोज़ ही स्नान करने के बहाने ले जाती हूँ हुगली में

    फिर भी नहीं मिलती प्रेमी से

    धारा लीलती है इसे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज्योति शोभा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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