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रज्जो जीजी की चप्पल और झोला

rajjo jiji ki chappal aur jhola

नीलेश रघुवंशी

नीलेश रघुवंशी

रज्जो जीजी की चप्पल और झोला

नीलेश रघुवंशी

और अधिकनीलेश रघुवंशी

    जब भी किसी औरत को, जो मेरी जैसी है,

    इस समय स्वेटर बुनते देखती हूँ तो लगता है

    बुनना सीख लेना चाहिए था मुझे भी

    जनवरी की कड़ाकेदार ठंड

    ज़्यादातर औरतों के हाथों में होते हैं, ऊन के गोले और सलाइयाँ

    गोले गोद से फिसलकर, दूर तक लुढ़कते जाते हैं

    याद रहे हैं पुराने दिन

    जब क्लास में सारी लड़कियाँ सिलाई-कढ़ाई करती थीं

    बाक़ायदा परीक्षा होती थी—

    मेरी एक सहेली थी दुर्गा

    पहले वो अपना काम करती, फिर मेरा

    एक बार तो हद ही कर दी थी मैंने

    रो-धोकर अपनी बहन से एक रूमाल बनवाया

    सिलाई के डिब्बे में छिपाया, पूरे पीरियड आड़ी-टेढ़ी सिलाई करती रही

    और फिर

    घर का बना रूमाल और ऊन का टोपा जमा कर दिया

    बच गई थी उस दिन, लेकिन तुम कभी ऐसा मत करना

    तुम्हारी सबसे बड़ी मौसी ‘रज्जो जीजी’ से बहुत चाँटे खाए मैंने

    इसी सिलाई-कढ़ाई को लेकर

    वह मुझे कसकर पास बिठा लेतीं और

    हाथ में सुई-धागा, साथ में ब्लाउज़ पकड़ा देतीं कि करो तुरपाई और लगाओ हुक

    जितनी ग़लती होती उतने तमाचे खाती, रो-रोकर घर भर देती मैं

    माँ ही थक जाती और कहती, छोड़ दे रज्जो, भाड़ में जाने दे

    रज्जो जीजी बोलतीं, ऐसे कैसे छोड़ दूँ :

    एक भी काम नहीं आता लड़कियों का

    क्या करेगी पराए घर जाकर

    (तब मैं क़सम खाती, शादी नहीं करने की मन ही मन)

    कई बार तो स्कूल से लौटते ही रज्जो जीजी की चप्पल और झोला दिख जाता

    शामत जाती मेरी, फिर वही राग

    कुछ दिन बाद जीजी ससुराल चली जातीं, मैं प्रार्थना करती

    हे भगवान्, अब इनकी सास इन्हें कभी भेजे

    आज भी मुझे कोई औरत सिलाई-कढ़ाई करती दिखती है तो

    रज्जो जीजी की चप्पल और झोला दिख जाता है

    कढ़ाई-बुनाई तो मेरी कभी ख़तम होने वाली कहानी है

    रात हो गई बहुत, चलो सोते हैं अब।

    स्रोत :
    • रचनाकार : नीलेश रघुवंशी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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