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राजघाट

Raj Ghat

लक्ष्मीकांत मुकुल

और अधिकलक्ष्मीकांत मुकुल

    चौकोर टीले की दीवारों की बीच

    काले संगमरमर के गोलाकार स्थापत्य की

    किनारी पर ताँबे की कलश में

    उठती है लौ, देती हुई उजास दुनिया को

    बहती हवा छूती है उसे मनुष्यता विरोधी

    ठिठुरन की विरुद्ध

    पेड़ों पर चहकते पंक्षी

    सुनाते हैं उसकी अदम्य गाथाएँ 

    जो लाठी थामे लड़ता रहा उसे बेख़ौफ़ आतताइयों से 

    जिनके डंके की चोट काँपती थी सारी धरती

    लॉन में फूलों पर मंडराते भौरे-तितलियाँ

    गुनगुनाते हैं हे राम की अनुगूँज 

    जिसे जपता रहा था वह रुख़सत काल तक

    तुम मरे कहाँ हो बापू!

    जीवित हो प्रांतर ज़हान के उन तमाम लोगों की धड़कनों में,

    जो अन्याय के प्रतिकार में झोंक देते हैं 

    भट्ठियों में सारा जीवन

    आज़ादी की लगन पाले जूझते भ्रष्ट तंत्रों की

    कंटीली बाड़ों से लहूलुहान होते हुए

    भूख से बेहाल गृह विहीनों के उभरते सपनों में

    एम एस पी की माँग करते हुए

    सिंधु बॉर्डर पर निहत्थे किसानों के दिलों में,

    जो भिड़ते हैं सत्ता के बैरिकेटों, कीलों,ड्रोन से गिरते आँसू बमों,

    वॉटर कैनल की बौछारों से

    मुल्तानी मिट्टी, भीगे जूट के बोरों,

    उड़ते पतंग से प्रतिरोध करते हुए

    जैसे चरखा चलाते, तकली से सूत कातते 

    किया था तुमने त्याग बैरूनी लिबासों का

    कोई मुर्दाघाट नहीं है राजघाट

    पंचभूत में विलीन हो गए उस साहसी का 

    विश्रामस्थल है, जो रेल से धकेले जाने पर भी 

    दत्तचित बना समर नीतियाँ बुनता रहा

    फिरंगी राज के सूर्यास्त देखने की पहल में

    वह अब भी करोड़ों लोगों की धौकनियों में

    जीवित हो जाता है

    जल-जलकर जी उठने वाले

    ठीक, फ़िनिक्स पक्षी की तरह!

    स्रोत :
    • रचनाकार : लक्ष्मीकांत मुकुल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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