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रेल में किलकारी

rail mein kilkari

बजरंग बिश्नोई

बजरंग बिश्नोई

रेल में किलकारी

बजरंग बिश्नोई

और अधिकबजरंग बिश्नोई

    रेल की खिड़की से क्या दिखता है

    हमें तुम्हें नहीं

    जिनकी आँखें मैली हो चुकी हैं

    सफ़ेदी पर पीलापन चढ़ आया है

    उन्हें नहीं

    उस नई माँ के कंधों से चिपके शिशु को

    जिसकी आँखों की सफ़ेदी पर

    नील लगी है अभी भी

    तेज़ी से घूमती है चमकदार काली पुतली

    काजल लगी आँखों में

    माँ ने उसके माथे के एक कोने पर

    काजल का दिठौरा भी लगा रखा है

    रेल के धक्कों के बीच

    उसकी गर्दन थिर नहीं हो रही है

    कदूहर की भरती में

    रेल की बासी गंध

    शिशु के माथे का दिठौरा सोख रहा है

    हिचकोले लेती पैसेंजर ट्रेन

    अचानक डिब्बे में गूँजती है

    एक किलकारी

    शिशु की किलकारी

    ट्रेन की वीभत्स फुंकार के

    जवाब में आती है

    माँ ज़ोर से भींच लेती है उसे

    उसका मुँह घुमाती है

    अपनी गोद की ओर

    शिशु तेज़ी से पलटता है

    और खिड़की के बाहर देखते हुए

    फिर एक बार किलकारी मारता है

    अपने दोनो छोटे-छोटे हाथों को

    ऊपर उछालता हुआ

    माँ समझ पाती है

    कसमसाती

    उमस भरी

    बैठी सवारियाँ

    ट्रेन की खचर-खचर-खिच

    जारी है

    शिशु देखता है

    लाल-लाल डूबता सूरज

    उसकी ओर उड़े जा रहे पक्षियों के

    काले झुंड और पेड़ की फुनगियों पर

    बिखरा सुनहरा बुरादा

    इस बार उसने अपने नन्हे हाथों का बल

    माँ का चेहरा घुमाने में किया

    जैसे माँ ने बाहर देखा

    उसने फिर ज़ोर से एक किलकारी भरी

    और अपना मुँह माँ के सीने में दे दिया

    सूर्यास्त के इस नज़ारे पर

    रेल में भरी गई किलकारी

    सीधे गिरते सूरज तक पहुँची

    और सूरज वहीं टँगा रह गया

    और शिशु ने जब मुँह घुमाया

    मैंने देखा :

    उसके माथे पर काजल के

    दिठौरे के बीच लाल बिंदी जैसा

    सूरज चिपका था

    स्रोत :
    • रचनाकार : बजरंग बिश्नोई
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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