प्रतिदिन की भाँति इंदु प्रिय सखी सी
श्वेत शीतल चंदन लगाए शिला पर
अपने प्रसून बिखेर सजाते
मनोहर बेलालता
परस्पर देखते, मुस्कुराते
विस्मित और आनंदविभोर हो
बुदबुदाते हुए रहस्यमय
चुंबन से कतराते हुए
श्यामघन के मध्य चंद्रकला सी
कान्हा की गोद में लेटी
यही तो है वह स्थल।
पहले, हाँ बहुत पहले, घट लिए सिर पर
पैरों से पायल झनझनाती
गीत गुनगुनाती
अकेली आती है सुगंधित कानन से
शाखा झुके कदम्ब से एक
पत्थर आ के तोड़ता मेरा घड़ा
फूट पड़े दुग्ध-प्रवाह में निमग्न मुँह
ऊपर किए देख के खड़ी मैं क्रुद्ध
संवारकर फूलों को शीघ्र
झुकते मयूरपंख मुस्कुराते
झुक के एक शरारती वदन
चुंबन किया पुष्पवर्षा सा!
फिर हिल न सकी, मैं
खड़ी हो गई, मधु-रस सी स्तम्भित
दुग्ध-स्नात, मधु में उद्वेलित
यही तो है कदम्ब वृक्ष की तलहटी
आत्म विस्मृत यमुना की
लहरें विकीर्ण हो लहरातीं चाँदनी में
पकड़ लिए हाथ तैर कर थकित कान्ह के
कालिन्दी तट पर बैठी
जल भीगे मृदुल पीताम्बर से
लिपटी, गोद में शीश रखे
सो गई मैं... निद्रा टूटते ही देखा सामने
खिले थे कमल फूल
तब बिना सोए सारा समय
निश्चल बैठे थे मेरे स्वामी
“प्रिये, सो जाओ, सो जाओ” कह के
दुलारते स्थान यही तो है
बिठा के सामने सप्रेम मेरे ओठ पर
रखते एक-एक अंगुर और
चुराते चुंबन से वे
भरी हँसी, सब क्रीड़ासंकेत!
हाय, यही तो है स्थल, भरा
मधुसूदन ने अनुरागमधु मेरे मन में!
फेनती चाँदनी में हिलती
लता-झूले में मनोन्मद
उस गोद में परिरम्भित
आलिंगनबद्ध हो झूलते उन्मदित स्थान यही तो है
यह उस दिन गाए गीत में छिपे
दुःख के स्वन गुनगुनाएगी...
झूलते हैं हम खेल ही खेल में, एक हैं हम
जानती हैं चिड़ियाँ, जानते हैं हम
यह मालूम है सही, तरल रात को,
इस लतानिकुंज को और श्याम बादल को
एक हैं दोनों शरीर, हृदय एक है
एक है नयनकान्ति, एक है जीवन
एक है सब; सच ही, पर तेरी
हँसी और मेरी वेदना एक ही नहीं है।
वह चाँदनी है तो, यह खारा समुद्र आँसुओं का
न शांत होने वाली है यह, कान्हा,
गोरोचन-घुले विशाल स्कंध पर
गाल लगाए बैठी मैं
झूला झूलती है धरा, आकाश पैंग लगाता!
समीप ही मृदुल पूर्ण चंद्र, सुषमा सहित
हे वन-दोल, पैंगें लगाते और ऊँचे और ऊँचे,
क्या इस गगन में दीप्त चंद्रमा को छुओगे?
पग की अंगुलिका के स्पर्श मात्र से
विलीन हो जाएगा चंद्र! गिरेगी चाँदनी नयनों में!
“राधिके नहीं चाहिए वह, विशाल यह
कमल नयन-ज्योति ही मुझे अभीष्ट!”
यहीं तो काँपते पैरों में
लगाई मेहँदी आपने
यहीं तो मेरी तप्त छाती पर
चंदन लेपन किया आपने
वहाँ खड़ी नील कुरिञ्ची के
तोड़ के चार पाँच छोटे फूल
पहनाए नीले कर्णाभूषण
पहनाया भरी छाती में,
मृणाल सूत्र में इन फूलों का मंगल-सूत्र
“तू मेरी वधु” कह के लगा लिया हृदय से
मेरी ही थी वह
तारों की पुष्पवर्षामय रात
यहीं तो रूठी बैठी थी मैं
आगे नहीं बोलूँगी इस हठ से
निष्फल, आगे खड़े देखे
प्रिय एक बार मुस्कुराते
“जाओ, चले जाओ, सामने मत खड़े हो माधव
जाओ चले जाओ” क्रुद्ध हो गई मैं।
“कौन सुंदरी तेरी कामिनी? मत दिखाओ
अपनी चतुरता, छुओ मत अब मुझे
रात में सोए बिना उनींदे नयनों से
आलस्य भरी झूठी मुस्कान से
अपरा के कुंकुम लगे वक्षःस्थल से
कैसा साहस मेरे समीप आने का!
अभी तक माना मैंने अभिन्न है हमारी देह
किंतु यह वेदना नहीं, लज्जा है शायद!
जाओ, चले जाओ सामने मत खड़े रहो तुम
देखो बनाना नहीं कोई बहाना मेरे सम्मुख”
मुड़कर खड़े मैं खंडित हो
मेरे सामने दिखाई प्रेमवेदना तुमने
“दे दो देवि, अपना पदकमल उदार” कह के
और पकड़कर दोनों चरण विनय की।
निष्फल हुआ क्रोध! कंपित शरीर
वनमाला हो उस विशाल छाती पर दब गई...
यही है क्रीड़ास्थली रास की।
देखो, यह स्थान छोड़कर नहीं जाएगा चैत्र।
मात्र यहाँ मुरझाएँगे नहीं, झरेंगे नहीं फूल
पक्षी हैं उनींदे
चंद्र घटता हुआ इस दिशा में आ जाए तो
दिखेगी पूर्णिमा की ज्योति!
अकेली चल रही है निरुपाय मानो
कोई नहीं आएगा यहाँ
आएँगे नहीं वे प्राण हो, आह्लाद हो
हँसी हो, गीत हो, ताल हो
धिरे लहँगे हों
झिलझिल नूपुर हो
कंपित उरोज हो
उड़ते फिरते सुंदर
फहराते सुन्दराञ्चलपट हों
शिथिल केश हों झरती माला हो
उन्मत्त प्रवहित शीतल चाँदनी हो
नृत्य करते थकित होने का आदेश देने वाली
बाँसुरी का आवेश हो
स्वेदसिक्त धुँधराले बाल,
फैले तिलक, गीले कंचुक,
मीलित नयन, आनंदस्मित
विकसित मधुर-अधर में
दल में खड़े नृत्त नृत्य के बीच भी
आलिंगन हेतु बढ़ाते करकमल
मध्य, नीलांबर सज्जित सुंदर सुदीर्घ स्कंध पर
बायाँ हाथ रखे खड़ी थी तू
ताल बजाती थी मनोरम हँसी बिखेरती
पायल सज्जित दाहिना पग
मुरली वादन के बीच-बीच
मुस्कुराते मंद मंद कान्हा तुम्हें देख-देख के
करती थीं पुष्पवर्षा
देव कन्याएँ या तरुलताएँ!
खड़े हो किसकी प्रतीक्षा में, बेचारे
चंद्रमा अपनी द्युति दिखाते हुए?
- पुस्तक : राधा कहाँ है (पृष्ठ 49)
- रचनाकार : सुगतकुमारी
- प्रकाशन : केरल हिंदी साहित्य मंडल प्रकाशन
- संस्करण : 1996
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