मन की सतहों पर
पुनः उतरने लगती है
यह रात
पर सहसा
चित्त के आकाश का रंग
कभी लाल
कभी पीला
कभी नीला
हुआ जाता है
तलवारें चमकती हैं आकाश में
बच्ची सहसा उठ जाती है और दौड़ पड़ती है
नंगी औरत ढक लेती है ख़ुद को
और देखती है आकाश में
चमकती तलवारें
तपेदिक की पीड़ा के बावजूद
उठ पड़ता है मंगरू का बूढ़ा बाप
और लाठी पकड़
लड़खड़ाता हुआ
चल पड़ता है क्षितिज की ओर
जहाँ लश्कर हो रहे हैं तैयार
उगता है रात थकने लगी है सहसा और
सचमुच सवेरा होने को आया है!
- पुस्तक : साक्षात्कार 179-180 (पृष्ठ 99)
- संपादक : प्रभात त्रिपाठी
- रचनाकार : विश्वरंजन
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