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रात

raat

आदित्य रहबर

और अधिकआदित्य रहबर

    रात कल

    चुपके से दबे पाँव आई थी मेरे कमरे में

    कहा—

    कैसी कट रही तुम्हारी रातें?

    चुपचाप ताकता रहा कुछ देर तक उसे

    देखा उसके चेहरे पर दो-चार धब्बे इतरा रहे थे

    मैंने पूछ दिया—

    ये दाग़ कैसे हैं?

    सहम गई

    बोली—

    इंतज़ार में काटी रातों के निशान हैं

    अब तो ये मेरी स्मृतियों के हिस्से हैं

    चाहकर भी मिटा नहीं सकती!

    मैं अच्छी तरह समझता था

    इंतज़ार का अर्थ

    पुनः पूछने की इच्छा नहीं हुई

    कौन नहीं जानता

    इंतज़ार में काटी गई रातें

    अमावस्या से भी काली होती हैं

    वे धब्बे, धब्बे नहीं थे

    आकांक्षाओं की पपड़ियाँ थीं

    जो सूख गए हैं

    नमी के अभाव में

    मेरी आँखों में भी नमी नहीं दिखती

    जब झाँकता हूँ उनमें

    तो दिखता है रेगिस्तान-सा कुछ

    जहाँ चारों तरफ़ रेत ही रेत हैं

    जिन्हें इंतज़ार है बरसात का

    ताकि मुस्कुरा सके

    वे पेड़-पौधे

    जिनकी छाँव में हम ढूँढ़ सकें सुकून

    जो खो गया है सदियों पहले

    इस भाग-दौड़ भरी दुनिया में कहीं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : आदित्य रहबर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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