रास्ते में मिली दिहिंग नदी
raaste mein milee dihing nadii
नामसाई जाने के रास्ते में
मिल गई थी दिहिंग नदी
समीप जाते ही उसमें उठने लगीं लहरें
मानों वह पूछ रही हो कि
तुम भी तो नदी के गाँव के हो
तुम्हारे बोल से उठती है भंवर की आवाज़
तुम्हारी चाल से अनुगूंजित होती है नदी की कल-कल
तुम्हारी देह की शिराओं में दौड़ रही हैं
किसी नदी-सखी की धाराएँ
पटाकाई शैल-शिखर की अलबेली पुत्री
नाओ दिहिंग बालू पानी की जीवित दुनिया बसाती
चली आती है, घनक-सी सजीली धरती पर
नीली पहाड़ियों, वर्षा वनों, जैविक उद्यानों, बाँस के जंगलों, गीलों धान के खेतों, चाय बगानों,
पेट्रोलियम स्थलों के रसगंधों को सूँघती हुई
अल्हड़ नवयौवना की तरह अंगड़ाइयाँ लेती हुई
अपने रसकत्ता से जीवनदान देती हुई
असंख्य पशु-पँछियों
प्यास बुझाती हुई पिपाषु खेत-मैदानों को
फिटिकरी से चमकते अपने अवरिल धारों से
ब्रह्मपुत्र नद के साथ परिणय सूत्र में बँधते हुए
सिर्फ़ बहती जलधार नहीं है दिहिंग
खामती लोकगीतों-लोक कथाओं की नायिका है वह
स्थानीय आदिवासी समूहों की माँ
पूजा, आस्था, श्रद्धा की जीवंत तस्वीर
मछलियों, कछुओं, केकड़ों को अपनी कोख़ में पालती
एक पूरा जल संसार रचती है वह
असंख्य गोखूर झीलों का निर्माण करती हुई
एक सधे कारीगर की तरह
नीर, नदी, नारी का रूपक बनी दिहिंग
सुबक रही है आज निरंतर उथली होती हुई
बेगैरतों ने बांधों, पुलों के निर्माण के नाम पर
छलनी कर दिए हैं उसकी गेह
पेट्रोलियम पाइप के रिसाव से
धधक उठती है उसकी काया
अपने पर आश्रित जलचरों, नभचरों,
अपने भीतर बाहर की असंख्य वनस्पतियों को
बचाने की चिंता में
ठीक रुग्ण माँ की तरह, बच्चों की देखभाल में विवश!
- रचनाकार : लक्ष्मीकांत मुकुल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.