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क़िले में औरत

qile mein aurat

रघुवीर सहाय

रघुवीर सहाय

क़िले में औरत

रघुवीर सहाय

और अधिकरघुवीर सहाय

    उस घर में बीस औरतें थीं

    उनमें थी सिर्फ़ एक बुढ़िया

    प्यारी बुढ़िया प्यारी बुढ़िया

    वे धोती थीं वे मलती थीं वे हँसती थीं

    वे घुसतीं और दुबकती थीं

    वे माँग जिस समय भरती थीं

    तब कितना धीरज धरती थीं

    वे सब दोपहर में एक क़िले पर

    पहरा देती सोती थीं

    वे ठिगनी थीं वे दुबली थीं

    वे लंबी थीं वे गोरी थीं

    वे कभी सोचती थीं चुपचाप जाने क्या

    वे कभी सिसकती थीं अपने सबके आगे

    उस दिन बुढ़िया बीमार पड़ी

    मर्दों ने कहा औरतों की बीमारी है

    वह बुढ़िया औरत के रहस्य—

    उन बीस जनों के औरतपन—की गठरी बन

    कोने में खटिया पर जा करके पहुड़ रही

    वह पहुड़ी रही साल-भर तक फिर गुज़र गई

    औरतें उठीं घर धोया मर्द गए बाहर

    अरथी लेकर

    स्रोत :
    • पुस्तक : रघुवीर सहाय संचयिता (पृष्ठ 79)
    • संपादक : कृष्ण कुमार
    • रचनाकार : रघुवीर सहाय
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2003

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