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पुरुष

purush

पवन करण

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पवन करण

और अधिकपवन करण

    एक बार मैंने उसे अपने सामने बिठाकर

    प्यार से समझाने की कोशिश की तो वह

    बुरी तरह बिफर गई मुझ पर ही और चीख़ते हुए बोली

    अभी क्या हमारी उम्र निकल गई है

    जो हम किसी और का बच्चा गोद लें

    मुझे ईश्वर पर पूरा भरोसा है

    मैं कभी भी तुम्हारे बच्चे की माँ बन सकती हूँ

    और तुम अपने ख़ुद के बच्चे के पिता

    क्या लोगों के यहाँ देरी से बच्चे पैदा नहीं होते

    एक बार फिर मैं उसके साथ इस मैदान में

    समझाईस का खेल खेलते हुए

    उससे बुरी तरह हार गया

    अपनी ही सलाइयों से अपने आपको उधेड़ता-बुनता

    हमेशा के लिए पराजित एक योद्धा की तरह

    एक बार फिर जा बैठा मैं अपने भीतर के कोप भवन में

    किस तरह समझाऊँ मैं उसे जब मेरी शिराओं में

    वह आवश्यक उपलब्धता ही नहीं

    तो उसमें उसका ईश्वर क्या कर लेगा

    वह आकर मेरे वीर्य में अपना वीर्य मिलाने से तो रहा

    और ही वह उसकी पूजा-पाठ से प्रसन्न होकर

    उसके बिस्तर में घुसकर चुपचाप

    उसकी योनि में जीव रोपण करने वाला

    यह काम तो कोई पुरुष ही करेगा,

    और निश्चित तौर पर वह पुरुष मैं नहीं

    मैं उसे अच्छी तरह समझाना चाहता हूँ कि

    एक इस रास्ते के हमारे पास कोई रास्ता नहीं

    कि हम विज्ञान के डर से भागकर

    एक टीले की ओट में हाँफते ईश्वर की जगह

    एक मनुष्य पर करें भरोसा

    मगर वह मेरी बात सुनने को तैयार नहीं क़तई

    वह अपनी ही कोख से बच्चे को जन्म देना चाहती है

    वह अपनी कोख से मेरा ही बच्चा जनना चाहती है

    अफ़सोस वह इसके लिए मुझसे लगाए बैठी है आस

    मैं उसे कई बार इस बारे मैं समझाने की करता हूँ कोशिश

    लेकिन वह हर बार मुझे यह कहकर

    कर देती है निरुत्तर की कोई कमी नहीं तुममें

    तुम्हारे बारे में मुझसे बेहतर कौन जानता होगा

    उस मामले में तुमसे ज़्यादा शैतान कोई नहीं होगा

    यह आदिम इच्छा उसकी मुझे अक्सर

    बौखलाने पर कर देती है मजबूर

    उसकी इस ज़िद की पूर्ति के बारे में मैं

    तरह-तरह से सोचता हूँ, सोचता क्या हूँ

    अपने ही भीतर छटपटाता हूँ

    क्या किसी भी तरह उसकी यह इच्छा नहीं हो सकती पूरी

    क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मेरी अनुपस्थिति में

    कोई आए और उससे कर जाए ज़बर्दस्ती

    और वह चुपचाप रह जाए सहकर

    नहीं बताए किसी को, मुझे भी नहीं

    और फिर जो परिणाम निकले वह मेरा कहलाए

    एक बात मैं उससे हर बार पूछने की सोचता हूँ

    लेकिन हर बार रह जाता हूँ सहमकर

    क्यों उसका कोई प्रेमी नहीं पुराना

    यदि हाँ तो क्या वह अब भी मिलती है उससे

    यदि मिलती है तो कितना मिलती है

    मुझे लगता है वह उससे उस तरह नहीं मिलती

    जिस तरह मिलती है मुझसे, अन्यथा मेरे सिर से

    यह कलंक कब का मिट गया होता

    लगता है उसका कोई प्रेमी ही नहीं

    काश वह होता तो आज कितने काम आता

    क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वह घर में ही

    कर ले कुछ ऐसा वैसा आख़िर ऐसा तो नहीं

    वे सब भी मेरी तरह हों अनुत्तीर्ण

    किसी एक को बना ले वह अपना साझीदार

    ऐसा नहीं कि दुनिया में काम इस तरह चलते हों

    फिर यह ठीक भी होगा, घर का सुख

    बहेगा घर में ही, मक्खन भी मिल जाएगा

    और नहीं फूटेगी मटकी भी

    सोचता हूँ और पूरी बेशर्मी से सोचता हूँ

    अपने ही तल में नीचे गिरकर सोचता हूँ

    कि आख़िर किस संकेत से समझाऊँ

    उसे मैं यह सब, आख़िर इस मामले में

    सब करना-धरना तो उसे ही है

    सब होना-धोना तो उसके साथ ही है

    कभी-कभी तो सोचता हूँ क्यों मैं ही भेज दूँ

    उसके पास किसी और को और ख़ुद

    खड़ा हो जाऊँ दरवाज़े पर लेकर लाठी

    एक पुरुष होने के बाद एक बच्चे को पाने के लिए

    यह जानते हुए भी कि बाज़ी मेरे हाथ से

    निकल भी सकती है बिगड़ भी सकती है बात

    सब करने के लिए तैयार हूँ मैं,

    आख़िर यह बात यह तो बस उसके भीतर

    या फिर सिर्फ़ मेरे भीतर

    या हम दोनों के भीतर ही तो रहनी है

    फिर दुनिया कुछ अंदाज़ लगाती भी है तो लगाती रहे

    जब हमारे ही मुँह नहीं खुलने तो

    फिर दुनिया के खुले हुए मुँह की तरफ़ क्या देखना

    और जब मैं इस तरह सोचता हूँ तो मुझे

    अच्छी लगने लगती है उसकी ज़िद

    एक बच्चे को मैं भले ही अपने बच्चे की तरह

    चाहता होऊँ गोद लेना लेकिन उससे पहले

    मैं भी तो यही चाहता हूँ कि मेरी पत्नी की कोख से

    एक बच्चा ले जन्म जो कहलाए मेरा

    जिसे मेरी पत्नी मेरा बच्चा कहे

    और अपनी पत्नी के आगे मैं उसे अपना

    जिसके जन्म लेने के कुछ दिन बाद बक्से में से

    मैं अपनी मेडिकल रिपोर्टें निकालूँ

    और चुपचाप आग में झोंक दूँ जाकर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : स्त्री मेरे भीतर (पृष्ठ 100)
    • रचनाकार : पवन करण
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2006

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